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________________ ( ६८ ) विवेचक - मला जी, स्वामी श्री दयानंदसरस्वती जी ने ही जान बूझकर और का और शब्द लिख दिया होवे तो इसमें भी क्या आश्चर्य है ? जैसाकि सन् १८८४ के छपे ससार्थप्रकाश के ४४७ पृष्ठोपरि "भुक्ते न केवलं न स्त्री मोक्षमेति दिगंबरः । प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेतांबरैः सह ||२|| " इस श्लोक के भाषार्थ में लिखा है कि “ दिगंबरों का श्वेतांबरों के साथ इतना ही भेद है कि दिगंबर लोग स्त्री का संसर्ग नहीं करते और श्वेतांबर करते हैं इत्यादि बातों से मोक्ष को प्राप्त होते हैं यह इनके साधुओं का भेद हैं । अब सोचना चाहिये कि या तो स्वामी जी दयानंद जी साहिब ने इस बात का परमार्थ ही नहीं जाना होवेगा ( वास्तविक में है तो ऐसे ही ) अथवा जान बूझ के ही गोला गरड़ा दिया होवेगा । क्योंकि स्वामी जी के लेख से ही सिद्ध होता है कि जैनियों के खंडन के वास्ते खोटा पक्ष मंजूर करना बुरा नहीं है, देखो सन् १८८४ के छपे सत्यार्थप्रकाश के २८७ पृष्ठोपरि “ अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीव ब्रह्म की एकता जगत् मिथ्या शंकराचार्य का निज मत था तो वह अच्छा मत नहीं और जो जैनियों के खंडन के लिये उस मत का स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है " क्या अब कोई कमर रही कि स्वामी जी ने जान बूझकर अदल बदल नहीं किया है ? बेशक बराबर किया है, और जैनियों की बाबत स्वामी जी के दिल में कितना ज़हर भरा पड़ा था सो स्वामी जी के पूर्वोक्त लेख से ही ज़ाहिर होरहा है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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