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________________ ( ६८ अफसोस है | तेरी समझ पर जोकि बलाबलका विचार करे विना अपनी ही हांसी कराने के वास्ते अनुचित बात लिख मारी है । जब साधारण प्रसिद्ध बातके विषय में इतना बडा भारी झूठा गोला गढ़ती है तो और शास्त्रों के अर्थों की निम्बत व्यर्थ बकवास करे तो इस में क्या आश्चर्य है ? तूं ने तो पंजाब की "जातकी कोड़ किरली शहतीर को जष्फी " इस कहावत वाली बात कर दिखाई मालूम देती है ॥ स्वामी श्रीदयानंद सरस्वतीजीने अपनें बनाये सत्यार्थ प्रकाश में चार्वाक मत के श्लोक लिखकर जैनमत के नाम से प्रसिद्ध करके जैनमत को धब्बा लगाने की जो चेष्टा की थी उसको दूर करने का . उद्यम महात्मा श्रीमान् आत्माराम जी महाराज ने किया था और द्वितीय बारके छपे सत्यार्थप्रकाश में फिर वह प्रकरण बराबर बदला गया मालूम होता है, इस अपूर्व गुण को तो तैंने मंजूर न किया, उलटा ॥ "" त्यक्त्वा भक्ष्यभृतं भांडं विष्टां भुंक्ते यथा किरः जैसे सुअर खाने के लायक अच्छी अच्छी चीजों से भरे बरतन को छोड़ कर गंदगी को खाता है ऐसे अवगुण ही ग्रहण किया मालूम होता है, और जो स्वामी दयानंदसरस्वति जी के नाम की ओट तैंने ली है सो भी अपने आपको चोट से बचाने के लिये ली है, नहीं तो तेरे पास क्या प्रमाण है कि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का लिखा जो तैनें ज़ाहिर किया है वह ठीक २ है ! और स्वामी श्री आत्मारामजी महाराज ने वैसे ही लिखा था जैसा तैंने स्वामी श्रीदयानंद सरस्वतीजी के नाम की आड़ लेकर राड़ मारी है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 99
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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