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________________ ( ५७ ) सिद्ध होता है जीव को जैसा लिखना या बोलना आता है यदि वैसाही विचारना आवे तभी इसकी बलिहारी है । अन्य मूर्तियों में निक्षेप का स्थापन और जिनमूर्ति में उसका उत्थापन यह कैसा न्याय है ? यदि मूर्ति में असलियत की तर्फ ख्याल कराने की बिलकुल ही ताकत नहीं है तो पार्वती की और मोहनलाल जी आदि मुखबंधों की मूर्तियां देखकर ढुंढक श्रावक श्राविकायों के दिल में झटपट यह पार्वती जी सती जी हैं, यह पूज्य जी महाराज जी हैं, इत्यादि भावना क्यों आजाती है ?. यह अमुक........है, या यह अमुक........है ऐसी भावना क्यों नहीं आती है ? इसको ज़रा दीर्घ दर्शित्व गुण का अवलंबन लेकर विचारना चाहिये, नकि-"हिरदे खिड़की जड़ी कुबुध की मुखबांधे क्या होय " ? इस मूजिर चुपचाप होना चाहिये । तात्पर्य-सब ठिकाने भावना ही का मूल्य पड़ता है, आगे वह भावना चाहे निमित्त को पाकर अच्छी होवे चाहे बुरी, फल तदनुसार ही होवेगा, श्रीप्रसन्नचन्द्र राजर्षि के चरित्र की तर्फ ख्याल करना चाहिये । तथा कालिक सौरिक जिसने भैसों का आकार बनाकर मारने का पाप पैदा किया, उसकी प्रवृत्ति का विचार करना चाहिये ! मतलब-कि पाप में उपयोग होने से पाप होता है और धर्म में उपयोग होने से धर्म होता है. परिणामे पाप, और परिणामे धर्म, ऐसी सूक्ष्मता के जानने वाले की बलिहारी है । श्रीआचारांग सूत्र में फरमाया है कि “जे आसवा ते परिसवा जे परिसवा ते आसवा" अर्थात् परिणाम के वश से जो आस्रव पाप का कारण है, सो संवर और निर्जरा का कारण होजाता है, और जो संवर निर्जरा का कारण होता है, सो परिणाम के वश से आस्रव पाप का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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