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________________ ( ५६ ) दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ भावार्थ-श्रीजिनेश्वरदेव का नाम सो नामजिन, श्रीजिनेश्वरदेव की प्रतिमा सो स्थापनाजिन, श्रीजिनेश्वरदेव का जीव सो द्रव्यजिन और समवसरण में स्थित सो भावजिन. जिसका नाम उसी की स्थापना उसी का द्रव्य और उसी का भाव इस तरह चारों निक्षेप का भली प्रकार समवतार होजाता है, मतलब कि अज्ञान के उदय से द्वेष बुद्धि से भावनिक्षेप के विना अन्य निक्षेप को वंदनीय नहीं मानना यह केवल उनका कदाग्रह ही है. पूर्वोक्त लेख से यह तो साबित होगया है कि नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप भी अवश्य ही मानना ही पड़ता है, विना माने किसी तरह भी गुज़ारा नहीं होसकता है, तो भी यदि जमालि की तरह इठ न छोड़ें तो उनकी मरज़ी, परंतु एक मोटी सी बात का ही जवाब देदें, हम देखें तो सही कि बोलना ही जानते हैं कि करने में भी होश्यार हैं। यदि अन्यमती मिथ्यात्वी देव की मूत्ति हावे तो उसको सम्यग्दृष्टि जीव नमस्कार करे या नहीं ? उसको नमस्कार करने से सम्यकत्व में कुछ फरक आता है या नहीं ? उसमें चारों ही निक्षेप माने जावेंगे या नहीं ? इस बात का विचार करके स्वयं ही समझ लेना चाहिये कि जैसे अन्य देव का नाम सम्यग्दृष्टि जीव स्मरण नहीं करता है, और स्वदेव का अर्थात् श्रीजिनेश्वरदेव का नाम स्मरण करता है, तो उसमें जरूर ही भेद समझा जाता है. जिसमें नफा जानता है करता है, नुकसान जानता है नहीं करता है. तो बस जब अन्यदेव की स्थापना को नमस्कार करने से नुकसान है तो स्वदेव की स्थापना को नमस्कार करने से अवश्यमेव फायदा है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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