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________________ ( ५३ ) दुओणयं जहाजायं किति कम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं दुष्पवेसं एग निक्खमणं " ||१|| भावार्थ - द्वादशाववर्त्त वंदना भगवान् श्रीवर्द्धमान स्वामी ने फरमाई है सो इस रीति से है- दो अवनत दो वक्त मस्तक झुकाना ( २ ) एक यथाजात अर्थात् जन्म और दीक्षा ग्रहण करने समय. जो मुद्रा ( शकल ) होती है वैसी मुद्राका बनाना ( ३ ) बारह आवर्त्त अर्थात् प्रथम के प्रवेशमें छै, और दूसरे प्रवेश में छै, इस तरह "अहो कार्य काय संफासं" इत्यादि पाठ सहित प्रदक्षिणा रूप कायव्यापार हाथों से करना (१५) चार सिर अर्थात् प्रथम प्रवेश में दो सिर और दूसरे प्रवेश में दो सिर कुल मिलक चार हुए ( १९ ) तीन मन वचन और काया का गोपना अर्थात् मन वचन और काया से वंदनातिरिक्त और कोई व्यापार नहीं करना (२२) दो बार. अवग्रह ( गुरु महाराज की हद ) में प्रवेश करना ( २४ ) और एक बार बाहिर निकलना (२५) यह कुल पच्चीस हैं = अब सोचना चाहिये कि गुरु महाराज का जो अवग्रह कि जिसमें दो बार प्रवेश करना और एक बार उससे बाहिर निकलना, बिना साक्षात् गुरु महाराज के विद्यमान हुए, या विना गुरु महाराज की स्थापना के हो सकता है ? कदापि नहीं । और जो वंदना का पाठ है उस में भी साफ गुरु महाराज से आज्ञा मांगकर अंदर प्रवेश करना जतलाया है, पक्षपाद की ओट में आकर अर्थ की तर्फ ख्याल न किया जावे तो इस में किसी का क्या दोष है, यह तो केवल परमार्थ को न विचारने वाले का दोष है देखो, वंदना का पाठ यह है ॥ इच्छामि खमासमणो वैदिउं जाव णिज्जाए 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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