SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५२ ) यदि उनकी पिछली अवस्था का विचार किया जावे तो वह द्रव्यनिक्षेप को वंदनीय नहीं मानते हैं तो फिर किस तरह वंदना करेंगे, और जो दिल में गुरु की उस अवस्था को थाप लेंवेंगे तो स्थापनानिक्षेप सिद्ध होगया, बताओ ? अब क्या बनावेंगे ? तटस्थ - बस जी ! क्या बनाना है ! सीधे रास्ते को छोड़ बांके रास्ते होकर भी स्थापना तो उनको अवश्य माननी ही पड़ती परंतु यह तो ऐसा हुआ जैसे कि हाथ से नहीं खाना तिनके से खाना, तो भी क्या हुआ, झक मारके स्थापना तो माननी ही पड़ी ॥ विवेचक - बेशक, उन्होने दिल में स्थापना स्थापन करली, बाहिर स्थापना स्थापन करनी नहीं मानी परंतु यदि शास्त्रानुसार चलना मंजूर करेंगे तत्रतो अवश्य ही बाहिर स्थापना स्थापन करनी पड़ेगी और जो अपने स्वच्छंद मार्ग पर चलना होवे तो उनका इखत्यार है । हमारा तो जितना उपदेश है, शास्त्रानुसार चलने वाले भव्य जीवों के लिये है, न कि आपापंथी निगुरे लाल बुजक्कड़ों के लिये | " स्थापना आवश्य स्थापन करनी योग्य है" तटस्थ - क्या किसी जैनशास्त्र का ऐसा भी प्रमाण है कि जिस से स्थापना स्थापन करके ही प्रतिक्रमणादि क्रिया करनी सिद्ध होवे ? विवेचक - श्री समवायांग सूत्र के बारवें समवाय में वंदना के पंचवीस आवश्यक लिखे हैं अर्थात् वंदना में २५ बोल पूरे करने चाहिये, सो पाठ यह है : दुवालसावत् किति कम्मे पण्णत्ते । तंजहा । www.umaragyanbhandar.com 66 -- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy