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________________ ( ३४ ) नाम स्थापना अवस्तु नहीं है। लो ज़रा ख्याल करो ! प्रथम पार्वती के लेख की यत्किचित् समालोचना करते हैं नाम और स्थापना को सर्वथा कल्पित और निरर्थक सिद्ध करने का पूर्वोक्त लेख में साहस कियागया है,सो बड़ा भारी अनुचित काम किया है क्योंकि जब नाम निरर्थक ही है तो फिर मुख पर तोबरा चढ़ाये किसलिये ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों के नाम लिये जाते हैं ? क्योंकि कल्पित वस्तु तो ढुंढकमत में सर्वथा ही निरर्थक है और श्रीऋषभादि तीर्थंकरों के नाम जन्मसमय में उनके माता पिता ने किसी कारण को पाकर नियत किये हैं कोई खास यह नियम नहीं है कि जो तीर्थकर होवे उनका यही नाम होवें; इसलिये नामनिक्षेप का अनादर करने से श्रीऋषभादि तीर्थंकरों के नाम का भी ढीढयों को अनादर ही करना पड़ेगा, अन्यथा प्रतिज्ञाभ्रष्ट होना पड़ेगा। भला जब नाम और स्थापना में नतो वस्तु का द्रव्य है और न मार है तो यावत्काल और इत्वर (थोड़े) काल तक का रहना किसको पुकारा जाता है ? तथा जब ढुंढकविचारानुसार नाम और स्थापना निक्षेप का सात नयों में समवतार नहीं किया है तो " इन दोनों निक्षेपों को सात नयों में से ३ सत्य नय वालों ने अवस्तु माना है" यह पार्वती का लेख-मम माता वंध्या, मम मुखे जिह्वा नास्ति-मेरी मां वांझ है, मेरे मुख में जवान नहीं है, ऐसे उन्मत्तालाप से कुछ अधिक उपमा के लायक हो सकता है ? नहीं ! नहीं !! तथा पार्वती ही का लेख साबित करता है कि नाम और स्थापना भी कुछ है क्योंकि जब पार्वती ने लिखा है कि सात नयों में से तीन नयवालों ने इन दोनों को अवस्तु माना है तो इससे ही सिद्ध है कि बाकी चारनयों वालों ने तो इन दोनों को जरूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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