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________________ ( ३३ ) इससे पार्वती के किये असत्य खंडन का खंडन होकर सत्य सत्य बात का मंडन भी हो गया, अब तो इस बात पर पार्वती को श्री चौबीस महाराज की जय बोल देनी योग्य है ॥ विवेचक - आप क्या कहते है ? नाम और स्थापना निक्षेप का भी तो पार्वती ने निषेध किया है । देखो ससार्थचंद्रोदय के नवमें पृष्ठोपरि “ तातें यह दोनों निक्षेपे अवस्तु हैं कल्पनारूप हैं क्योंकि इनमें वस्तु का न द्रव्य है न भाव है और इन दोनों नाम और स्थापना निक्षेपों में इतना ही विशेष है कि नामनिक्षेप तो यावद काल तक रहता है और स्थापना यावत्काल तक भी रहे अथवा इतरिये ( थोड़े ) काल तक रहे क्योंकि मूर्त्ति फूट जाय टूट जाय अथवा उसको किसी और की थापना मान ले कि यह मेरा इंद्र नहीं यह तो मेरा रामचंद्र है वा गोपीचंद्र है, वा और देव है, इन दोनों निक्षेपों को सात नयों में से ३ सत्य नय वालों ने अवस्तु माना है क्योंकि अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्य और भाव निक्षेपों पर तो सात सात नय उतारी हैं परन्तु नाम और स्थापना पै नहीं उतारी है इत्यर्थः" इत्यादि : बस अब कहिये ! भगवान् के नाम की जय बोलनी या भगवान् का नाम लेना पार्वती तथा ढुंढियों के वास्ते मुश्किल होगया या नहीं ! परन्तु चिंता मत करो, जैनशास्त्रानुसार नाम और स्थापना निक्षेप को भी पूर्वोक्त श्रीजिनेश्वरदेव के द्रव्यनिक्षेपवत् वंदनीय सिद्ध कर देवेंगे जोकि ढुंढियों को बलाव मंजूर करना पड़ेगा, और पार्वती को लिने असत्य का पश्चात्ताप प्रायश्चित्त करके शुद्ध होना पड़ेगा, अन्यथा विराधकों की कोटि में पड़ा रहना पड़ेगा, जमालि वद ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034517
Book TitleJain Bhanu Pratham Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherJaswantrai Jaini
Publication Year1910
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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