SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 8 ] साधु संस्था पूज्य नहीं है क्योंकि शिथिलाचार, स्वार्थ उसमें भरा हुआ है। इन चार युक्तियोंसे वे दीक्षाका विरोध करते हैं / न्याय दृष्टिकी आवश्यकता हम किसी संस्थाको न्याय तब ही दे सकते हैं जब कि उसकी दृष्टिसे हम सोचें / जो भोजन करने बैठा हो वह, भीखारी भीख क्यों मांगता है, उसके कारणका विचार करें तब ही उसको सच्ची परिस्थिति मालूम होती है, नहीं तो मजाक करके भगा देने में ही इति-कर्तव्य समझता है। त्याग मार्ग में भी ऐसा ही है और उस संस्थाके बारेमें उसको ही विचार करनेका अधिकार है जो त्यागी हो। जिसने संसारका सर्वथा त्याग कर अपने शरीरके भीतरकी दिव्य आत्म-शक्तिके विकासके लिये ही सब समर्पण किया हो उसको संसारी, जो कि कषायासक्त है, कभी नहीं समझ पायेगा। संसारी और त्यागीके ध्येय संसारीका ध्येय है देह पुष्टिमें समग्र शक्तिका उपयोग और त्यागीका ध्येय है शरीरके साधनसे आत्मोन्नति / संसारीके लिये शरीर सुखकी साधना ही आदर्श है और त्यागीकी प्रत्येक प्रवृत्ति आध्यात्मिक विकास के लिए होनेसे उसकी साधना आत्मोद्धारकी है। इस तरह दोनोंके ध्येयमें पूर्व पश्चिमका अन्तर है / ___ न्याय करनेमें अयोग्य जिनको खुदका कुछ ज्ञान या अनुभव न हो, जो उच्च भावना झेलनेकी अपने में ताकत नहीं रखते वे संसारी मनुष्य निर्जरारक्त त्यागियों को न्याय देने में योग्य कैसे हो सकते ? और जब योग्यता है ही नहीं तब उसके न्यायमें कितना तथ्य हो सकता हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034501
Book TitleDiksha Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy