________________
* भूमिका *
चौरासी लाख योनियों में एक मनुष्य योनि ही ऐसी सर्वोतम योनि है कि जिसे प्राप्त कर यह जीव अपना उत्यान कर सकता है । यह मनुष्य योनि महान दुर्लभ है। इस योनि को पाकर भी इसमें पूर्णायु, इन्द्रिय पूर्णता, नीरोगता, उच्चगोत्र, सुकुल, सत्संग, सदाचरण, यह सब महान कठिनाई से मिलते हैं इनके मिलने पर भी सद्धर्म का मिलना तो विशेष दुर्लभ है। क्योंकि सद्धर्म हो संसार समुद्र से पार करने को नौका है । वैसे वस्तु का स्वभाव ही धर्म है यथा 'वत्त, सहावो धम्मो" अतः जीव का स्वभाव भी धर्म रूप है, वह स्वभाव क्षमा, मार्दव आदि गुण रूप है जो कि आत्मा का अभिन्न अंग है । प्रत्येक वस्तु निज स्वभाव में ही रत है किन्तु जब उसमें कोई अन्य योग मिल जाता है,तभी वह विकार रूप हो जाती है । जैसे जल का स्वभाव शीतल है और शीतल ही रहेगा किन्तु अग्नि पर चढ़ाने से वह इतना तप्त रूप होता है कि दूसरों को भी जला देता है । इसी प्रकार जीव का स्वभाव भी सद्धर्म रूप है किन्तु क्रोधादि के निमित्त से अनेक विकार उसे पतनकी ओर ले जाते हैं। इन क्रोधादिक कषायों से बचने के लिए एवं अपने निज स्वभाव की प्राप्त के लिए जीव को धर्माचरण की आवश्यकता होती है । धर्म कोई कहने की और देखने दिखाने की वस्तु नहीं है, वह तो निज स्वभाव में लीन होने और आचरण करने की चीज है। जिन सत्पुरुषों का संसार निकट है एवं जिनका भला होना है उनके ही भाव धर्माचरण के होते हैं । इस महान दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर जो जीव इस महान कल्याणकारी प्राचरण से शून्य रहते हैं उन्हें पुनः पुनः संपार को चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। अनादि काल से यह जीव अपने निज स्वभाव को भूल चुका है यह भूल कुसंगति के कारण से हुई है, जब इसे थोड़ा सा भी इस भूल का ज्ञान होता है तभी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com