________________
"उदक चन्दन तंदुल पुष्पकैश्चर सुदीप सुधूप
फलाघकः। धवल मंगल गानरवाकुले निजगृहे मुनिराज
मह यजे॥ यदि इस प्रकार भी नहीं बोलना आये तो "अर्चामि" कह कर द्रव्य चढ़ा देना चाहिये। ५प्रणाम भक्ति पूर्वक भूमि पर जीव जन्तुओं को देखकर अष्टांग या पञ्चांगन नमस्कार करना। ६ मन शुद्धि-प्रसन्न चित्त होकर ही आहार देना चाहिये । और मन में किसी प्रकार का विकार भावन रखना ही मन शुद्धि है। ७ वचन शुद्धि-सरलता पूर्वक सत्य, प्रिय, योग्य वचन बोलना वचन शुद्धि है। ८ काय शुद्धि-शरीर को स्नानादिसे शुद्ध कर,शुद्ध वस्त्र धारण करना परन्तु रंगीन वस्त्र नहीं हो तथा जीवों को गमनागमन से वाधा नहीं पहुँचे । किसी ही जीव की शरीर से विराधना न हो सावधानी रखना ही काय शुद्धि है । दातार को कम से कम दो वस्त्र पहनना ही चाहिये। ६ मिक्षा शुद्धि-पाहार जल को शुद्ध ही त्यार करें परन्तु मुनि के निमित्त न बनाया गया हो । प्राशुक जल से भली प्रकार देख भाल कर भोजन तैयार करके रखना ही भोजन शुद्धि है ।
साधुओं की वेश्यावृत्ति का फल परम वीतराग जिनेन्द्र के मार्ग-रत साधु को प्रणाम करने से उच्च गोंत्र बंधता है और उनको शुद्ध निर्दोष आहार देने से उत्तम भोग भूमि तथा देव गति के सुख एवं चक्रवर्ती पद की
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com