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उपाध्याय परमेष्टी के लक्षण
ग्यारह अग और चौदह पूर्वो को जानने वाले उपाध्याय कहलाते हैं ।
ग्यारह अंगों के नाम
परिकर्म, सूत्र,
ग
१- आचारांग २- सूत्र कृतांग ३- स्थानांग ४- समवायांग ५ - व्याख्या प्राज्ञप्ति ६ - ज्ञातृकथगांग ७. उपासकाध्ययनांग 5- अन्त कृद्दशांग ६ - अनुत्तरोपपाद दशांग १०- प्रश्न व्याकरणांग ११० विपाक सूत्रांग । दृष्टि बाद नाम अंग के पाँच भेदप्रथमानुयोग पूर्वागत, चूलिका । अन्त का जो दृष्टिवाद है वह श्रुत केली के होता है, उपाध्याय के नहीं । यह उपाध्याय साधु पठन-पाठन में यहाँ लीन रहते हैं । यह पच्चीस मूल गुणधारी होते हैं । चौदह पूर्वो के नाम- १. उत्पाद पूर्व, २- आग्रायणीय, ३- वीर्याभुवाद, ४ - अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व ५- ज्ञान प्रवाद पूर्व ६- सत्य प्रवाद, ७- आत्म प्रवाद, ८- कर्म प्रवाद, ६- प्रत्याख्यान पूर्व, १० - विद्यानुवाद, ११- कल्याणवाद, १२- प्रारणवाद १३- क्रियाविशाल, १४ - त्रिलोक विन्दुसार पूर्व । इस प्रकार ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के ज्ञाता पुरुष उपाध्याय कहलाते हैं । वे संघ में मुनियों को पढ़ाते हैं उनको उपाध्याय पद आचार्यों द्वारा दिया जाता है |
तपस्वी [साधु परमेष्टी आठ भेद रूप हैं ] के लक्षण
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जो पर पदार्थों में निर्ममत्व रखते हैं, वहीं साधु तप कर सकते हैं | जिनको अपने शरीर से भी ममत्व नहीं हैं, वहीं साधु द्वादश प्रकार का तप तथा प्रतापन योग, वृक्ष मूल योग तथा अनावकाश योग धारण कर कर्मों पर विजय प्राप्त कर - ३
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