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________________ ४६ [प्राक्कथन शिवाजीकी साम्राज्य धुरीका संचालन करनेवाली थी। बाजी प्रभुकी स्वामी भक्ति और पनाला युद्ध, संसारके इतिहासमें सुवर्णाक्षरों में लिखे जानेके योग्य हैं। परन्तु इस स्वामी भक्त जातिको शिवाजीके वंशजोंके साथ अपनी अनन्य भक्तिके फल स्वरूप पेशवाओंके हाथसे नाना प्रकारकी यन्त्रणायें भोगनी पड़ी। यहां तक कि मरहठा साम्राज्यके न्यायोचित उत्तराधिकारीका साथ न छोड़नेकी धृष्टतामें कितने वीरोंको असह्य यंत्रणायें भोगनी पड़ीं। अनन्तर ब्राह्मण शक्तिके उत्कर्ष और उनके, वन हृदयको दहलानेवाले, पैशाचिक कार्यको देख उनकी एक छत्रताके भावी परिणामकी चिन्ताने अब्राह्मण मरहठोंको चिन्तित किया। और वे विना किसी पूर्व निश्चयके स्वभावतः उसके नाशमें प्रवृत्त हुए। उन्होंने उसके नाशमें प्रवृत्त होतेही उचित अनुचितका कुछभी ध्यान न किया। चाहे जिस साधन, मुसलमानों अथवा अंग्रेजों आदि किसीमी विदेशी शक्तिके सहायसे क्यों न हो उसके नाशमें प्रवृत्त हुए। यद्यपि इन्होंने ब्राह्मण शक्तिका नाश संपादन किया; परन्तु उन्हें अपने देशद्रोह और विदेशियोंकी सहायता प्राप्त करनेका परिणाम शीघ्रही भोगना पड़ा। इनके अधिकृत भूभागको क्रमशः विदेशी अपहरण करने लगे अन्ततोगत्वा इनकोही नहीं वरन समस्त भारतको पराधीनताकी श्रृंखलामें आबद्ध होना पड़ा। मरहठोंके परस्पर संघर्षके पश्चात् राजपूत और मरहठा संघर्षका नग्न दृश्य हमारी आँखोंके सामने आता है। इस संघर्षकी जड़मेंभी ऊँच और नीचका भाव भरा हुआ प्रतीत होता है। यदि ऐसी बात न होती तो गायकवाडको, मुसलमानोंके समान गुजरात और काठियावाडके बॉसदा आदि कतिपय राजवंशोंको छोड़ प्रायः सभी राजपूत राजवंशोंको अपनी कन्यायें देनेके लिये आप बाध्य करते न पाते । पुनश्च ऐसा भाव न होता तो अनेक राजपूतोंकी कन्यायें प्राप्त करनेके पश्चताभी बड़ोदाके गायकवाड़ राज्यवंशको राजपूत समाजसे बहिष्कृत न पाते। मरहठोंके परस्पर संघर्षने यदि भारतके भाग्यको रसातल गमनोद्यत किया था; तो राजपूत मरहठा संघर्षने उसे औरभी शीघ्र गामी बनाया । ___ हम ऊपर बता चुके हैं, कि मरहठों की महत्वाकांक्षा ने भारत में कालरात्रि उपस्थित की। वे राहु और केतु के समान राजपूत राजवंशों को पीड़ा देने लगे। एक के बाद दूसरा इनका शिकार होने लगा। अतः यहां पर राजपूत राजवंशोंकी दयनीय अवस्था का चित्रण करना आवश्यक प्रतीत होता है । राजपूतोंने शिवाजी की सद्भावना से प्रेरित हो उनका हाथ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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