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________________ [चौलुक्य चंद्रिका यमेंभी इस वंशके अधिकारमें दक्षिण लाट और उत्तर कोकणका एक बहुत बड़ा भाग था । परन्तु मरहटोंके उत्कर्ष पश्चात इनके राज्य लोलुप अधिकारिओंने राज्यवंशकी अशक्ततासे लाभ उठा अपना अधिकार जमाना प्रारंभ किया। सर्व प्रथम पेशवाओंने राज्यवंशका विरोध किया । पेशवाओंका अनुकरण दूसरे सैनिकोंने किया । पेशवा और दभाड़े और गायकवाड़ आदिकी स्पर्धा और राज्य लिप्साने ताण्डव नृत्य करना प्रारंभ किया। वे प्रातः स्मरणीय छत्रपति शिवाजी महाराजके साधु उपदेशको भूल गये और यहां तककि गये दिन आपसमें लड़ने भिड़ने लगे। राजनैतिक दृष्टिकोणमें अपने लाभको लक्ष रखकर विदेशिओं (अंग्रेजों) से संधि आदि कर एक दूसरेपर आक्रमण कर महाराष्ट्र शक्तिके मूलमें तुषारपातारंभ किया। उनकी दृष्टिमें स्वामी भक्ति और स्वामी द्रोहमें कुछभी अन्तर न रहा । उसी प्रकार स्वजाति और स्वदेश प्रेम तथा जातिद्रोह किसीभी गणनाकी वस्तु न रही। यदि कोईभी वस्तु उनकी दृष्टिमें महत्वकी थी तो वह व्यक्तिगत लाभ नामक वस्तु थी। इनकी इस महत्वाकांक्षाने भारतमें कालरात्रि उपस्थित की। ये राहु और केतुके समान सूर्य और चंद्रवंशी राजपूत राजवंशोंको पीड़ा देने लगे। एकके बाद दूसरा राजपूत राज्य इनके शिकार होने लगे। यदि पेशवाओंने विद्रोह न किया होता-पेशवाकी बढ़ती शक्तिका विरोध गायकवाड़ और दभाड़े आदि मरहठे न किये होते-पेशवाओंसे विरुद्ध वे निज़ामुलमुल्क आदि मुसलमानोंसे न मिले होते-पेशवाकी शक्तिका नर्मदा तट पर क्षय न किये होते और अन्ततोगत्वा गायकवाड़ पेशवाके विरुद्ध अंग्रेजोंसे न मिला होता तो न मालूम आज भारतका इतिहास किस प्रकार लिखा जाता। यह हम अस्वीकार नहीं करते कि पुराकालमें भारतके किसी सैनिकने पुराने राजवंशकी घटती शक्तिका उपयुक्त लाभ उठा नवीन राज्यवंश स्थापित न किया था। ऐसा दृष्टांत केवल भारतकेही नहीं वरन सारे जगतके इतिहासमें पाया जाता है। परन्तु पेशवा, गायकवाड़, दभाडे, सिंधिया, होल्कर और पवारके परस्पर संघर्ष और मरहठा तथा राजपूत विग्रहने जो नम ताण्डव नृत्य किया था, उसका दृष्टांत भारतको कौन बतावे, सारे संसारके इतिहासके पन्ने उलटने परभी नहीं पाया जा सकता। इनका संघर्ष यदि राज्यसत्तात्मक महत्वाकांक्षाकी परधिमेही परिमित होता तो देशको उतनी हानि न उठानी पड़ती। किंतु इनके संघर्षने आगे चलकर ब्राह्मण और अब्राह्मणका रूप धारण किया, और उसका शिकार सर्व प्रथम कायस्थ (प्रभु) जातिको होना पड़ा। कायस्थ जाति महाराज छत्रपति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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