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________________ ४३ [ प्राक्कथन त्रिभुवनपालको नंदीपुरके चौलुक्योंके साथ युद्ध करते पाते हैं । त्रिभुवनपाल पाटनवालोंका लाट देशीय सर्व प्रथम दण्डनायक था । कथित युद्ध और पराभवके समय नंदीपुरके सिंहासन पर पद्मपालको पाते हैं । अतः हम नंदीपुर के चौलुक्योंके अस्तित्वको विक्रम संवत् १९५५ के आगे नहीं मान सकते। क्योंकि इस समय भृगुच्छादि लाटके भूभागपर पाटनवालोंके अधिकारका स्पष्ट परिचय मिलता है । एवं तापीके दक्षिणवर्ती लाटके भूभागपर एक नवीन चौलुक्य वंशको अधिष्ठित पाते हैं । उक्त राज्यवंशका अधिकार कथित प्रदेशमें संभवतः विक्रम १९४९ के पूर्व हुआ था । अतः हम कह सकते हैं कि नंदीपुरके चौलुक्य उत्तरसे पाटनवालों और दक्षिणसे नवीन चौलुक्य वंशकी राजलिप्सा चक्रमें पड़कर पिस गये और उनका अस्तित्व संसारके मान चित्रसे सदा के लिये उठ गया वासुदेवपुर के चौलुक्य | जिस समय लाट नंदीपुर के चौलुक्य अपनी राज्य लक्ष्मीको पाटनके चौलुक्योंके कराल गालसे बचाने के लिये प्राण पणसे चेष्टा कर रहे थे। उसी समय लाटके राजनैतिक रंगमंच पर विजयसिंह केशरी विक्रम नामक नवयुवक खेलाड़ी उपस्थित हुआ । और अपनी तलवारके चमत्कार दिखा, तापी नदीके दक्षिणवर्ती और उत्तर कोकणके उत्तरीय सीमा प्रदेश तथा सह्याद्रिके पश्चिमोत्तरवर्ती भूभागको अधिकृत कर मंगलपुरी नामक नगरीमें चौलुक्य वंशका नवीन राज्य स्थापित किया। इस नवीन राज्यवंशका वातापि कल्याणके प्रधान चौलुक्य वंशके साथ प्रत्यक्ष संबंध था । कल्याण नगरवसानेवाले वातापिनाथ श्रहवमल सोमेश्वरको सोमेश्वर भुवनमल, विक्रमादित्य त्रिभुवनमल और जयसिंह त्र्यलोक्यमल नामक तीन पुत्र थे । उनमें से सोमेश्वर और विक्रमादित्य क्रमशः वातापि कल्याणके सिंहासनपर बैठे । विक्रम जब अपने बड़ेभाई सोमेश्वरको गद्दी से उतार अपने आप राजा बन बैठा तो उसने अपने छोटे भाई जयसिंहको वातापि कल्याणका भावी उत्तराधिकारी स्वीकार किया । एवं उसे पिता और सोमेश्वरके समय से प्राप्त जागीर से अतिरिक्त वनवासी प्रदेशकी नवीन जागीर प्रदान की । एक प्रकारसे जयसिंह और विक्रमके मध्य वातापि कल्याण का राज्य बट गया । जयसिंह अपनी राज्यधानी वनवासीको बनाया, और वनवासी युवराजके नामसे शासन करने लगा। परन्तु विक्रमकी कूट नीतिसे असंतुष्ट हो तलवारकी धारसे विवादका फैसला • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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