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________________ प्राक्कथन गुजरातपर आक्रमण किया। अतः लवणप्रसादको सिंधनके सामने से हटकर मारवाड़वालों से लड़नेके लिये जाना पड़ा। लवणप्रसादके लौटनेका संवाद पा यादवराज सिंघन अपनी सेना साथ देशको लौट गया। क्यों कि वह भागनेवाले शत्रु, बालक और वृष्टपर आक्रमण नहीं करता था " । कीर्ति कौमुदीकारने गुजरातक इस पराभवको कितनी उसमताके साथ वर्णन किया हैं। चाहे वह इस प्रकार लिख कर अपने खामी पाटनके वाघेलोंको संतुष्ट कर सका हो- पश्चात् भावी गुजरा। तियोंकी आंख में धूल झोंक सके परन्तु आजकी न तो गुजराती प्रजा और न अन्य भारतीय उसकी इस चाटुकताकी घपलेमें आ सकती है। चाहे कोई सत्यको कितना ही द्विपाना चाहै, वह नहीं छिपता है। इसी प्रकार कीर्ति कौमुदीके कथनको तत्कालीन अन्यान्य ऐतिहासिक लेखोंके साथ तुलना करतेही कथित युद्धका परिणाम अपने आप आंखों के सामने आ जाता है अर्थात् उक्त युद्धमें पाटनकी सेनाको पराभूत होना पड़ा था और Mauसादको बाध्य होकर पराजित संधि करनी पड़ी थी। इस प्रकार संधि द्वारा सिंघनसे प्राण छुड़ा वह मारवाड़वालोंसे लड़ने के लिये अग्रसर हुआ था। गुजरात मारवाड़ युद्ध में आबू चंद्रावती के परमार राज धारावर्षेने पाटनवालोंको सहाय प्रदान किया था । इस विषयका विवेचन हम सांगोपांग पाटन और वातापिके ऐतिहासिक लेखों (चौलुक्य चंद्रिका ) में कर चुके हैं। अतः यहां पर केवल उत्तर कोकण और लाटके संबंधमें विचार करते हैं । उत्तर कोकणसे स्थानक के शिल्हाराओंका समावेश होता है। परन्तु लाट नामसे किसका उल्लेख किया गया है यह समझमें नहीं आता। क्योंकि लाट नामसे नंदीपुर के ग्रहण होता था जो तत्कालीन इतिहासमें स्पष्टरूपेण पाया जाता है। हमें यह निश्चित रूपसे ज्ञात है कि लाट नंदीपुर के चौलुक्योंका मूलोच्छेद इस समयसे लगभग ८०-८५ वर्ष पूर्व तथा पाटनपति सिद्धराज के राज्यारोहनसे लगभग ७-८ वर्ष पश्चात हो चुका था। और लाटका उत्तर प्रदेश ( नर्मदा और महीके मध्यवर्ती भूभाग) पाटन राज्यमें मिला लिया गया था। इसके पश्चात लाट नामसे किसीभी राज्यवंश की संस्थापनाका परिचय नहीं मिलता। और न हम पाटनवालों कोही अवन्तिनाथ उपाधिके समान लाटपति अथवा लाटेश्वर उपाधि धारण करने पाते हैं। पुनश्च जबकि उनका उल्लेख " गर्जत गुर्जर ” नामसे किया गया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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