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________________ १९ [प्राक्कथन पश्चान् मान्यखेटके राष्ट्रकूट राज्य सिंहासन पर बैठा था दन्तिदुर्गके अपुत्र मरने के पश्चात् कर्कने उत्तराधिकारके लिए विवाद उपस्थित किया, और अपने चचेरा वादा कृष्णराजसे लड़ पड़ा। हमारी समझ में कर्कके इस विवादका आधार यह था कि उसका दादा ध्रुवराज दन्तिदुर्गके पिताका माला भाई था। परन्तु इस विवादमें कर्कको अपने अधिकार और प्राण दोनोंही गंवाने पडे । हमारी इस धारणाका समर्थन कृष्णके प्रपौत्र, और गुजरातमें राष्ट्रकूटवंशकी स्थापना करनेवाले इन्द्र के पुत्र, कर्कके बरौदासे प्राप्त और इन्डियन एन्टीक्वेरी बोल्युम १२ पृष्ठ १५६ में प्रकाशित लेखके वाक्य कृष्णराजने दन्तिदुर्गके पश्चात् स्ववंशके कल्याणार्थ स्ववंशके नाशमें प्रवृत्त आत्मीयका मूलोच्छेदन करके राज्यधुरी संचालनका भार स्वीकार किया। इस शासन पत्रके कथन,-"स्ववंशके नाशमें प्रवृत आत्मीयका मूलोच्छेद करके" तथा हमारी धारणा : “ कर्कको अधिकार और प्राण गंवाने पडे " का समर्थन अन्तरोली चारोली वाले कर्कराजके वंशजोंका कुछभी परिचय नहीं मिलनेसे होता है। इन बातों पर लक्ष कर हम कह सकते हैं कि लाट वसुन्धराके साथ राष्ट्रकूट वंशका सम्बन्ध स्थापित करनेवाला दंतिदुर्ग द्वितीय है। उसने स्वाधीन माट देशको, शक ६६६ के पूर्व नवसारीके चौलुक्योंको पराभूत करके राष्ट्रकूट बंशके स्वाधीन किया था । लाटदेश अधिकृत करने पश्चात उसने अपने चचेरे भतीजा कर्कको लाटका सामन्त बनाया । परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके द्वितीय चचा और कर्कके मध्य उत्तरधिकारके लिये विग्रह मचा है । कर्क युद्धमें मारा गया और कृष्ण विजयी होकर राष्ट्रकूट राज्य सिंहासन पर बैठा। कृष्णराज के बाद उसका बडा लड़का पुत्र गोविंदराज गरी पर बैठा परन्तु उसे उसके छोटेभाई ध्रुवराजने उसे गद्दीसे उतार खुद राजा बना । ध्रुवराजने अपने वंशके अधिकारको खूब बढ़ाया । और अपने बड़े पुत्र गोविंदको बाटदेशका शासक नियुक्त किया । गोविंदने लाटदेशका शासक होनेके पश्चात् अपनी राजधनी नासिकके अन्तर्गत मयूर खण्ड नामक स्थानको बनाया । एवं स्तम्बपति और मालवराजको पराभूत किया । मालवा विजयके पश्चात् . मोविंव : विय, देशके प्रति अग्रसर हुआ और पूर्व मालवाके राजा....मारः सर्वको स्वाधीन कर लाट देशको चौद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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