SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [प्राक्कथन गुप्त वल्लभि संवत् २६९ और २७० वाले दो लेखों में उसका विरुद “ महा सामन्त” पाया जाता है। गुप्त वल्लभि संवत और विक्रम संवत्का अन्तर ३७५ वर्ष और त्रयकुटक विक्रमका अन्तर ३०६ वर्ष है। अतः सिद्ध हुआ कि २६९-७० गुप्त वल्लभि तदनुसार २६९-७० + ६९=३३८-३९ त्रयकुटक, २६९ + २४० = ५०९ 'शक, २६९ + ३१८=५८७ ईस्वी और २६९ : ३७५=६४४ विक्रम के पूर्वही वल्लभिके मैत्रकोंको पराजित कर स्वाधीन कर लिया था। उपर हम बता चुके हैं कि लाट प्रदेश भरूच नन्दिपुर के गुर्जरोंका अभ्युदय इस समयसे लगभग आनुमानिक रीत्या ७-८ वर्ष पूर्व हैं। उधर वल्लभिमें मैत्रकोंका और भीनमालमें गुर्जरोंका अभ्युदय समकालीन है। अतः हम कह सकते हैं कि भीनमालके गुर्जरोंने बल्लभिके मैत्रकोंको उक्त समयमें स्वाधीन कर अपना अधिकार नर्मदाकी उपत्यका पर्यंत बढाया था । और साम्राज्य की अन्तिम दाक्षिणात्य सीमा पर अपने संबन्धी दद प्रथमको सामन्तराजके रूपमें स्थापित किया था। यद्यपि गुर्जरों के अधिकारमें नर्मदा की उपत्यका प्रदेश चला आया था, तथापि वल्लभिवालोंका अधिकार उत्तर गुजरात के खेटकपुर, स्तम्भ तीर्थ आदि प्रदेशों पर बना रहा। हां इतना अवश्य था कि वे सम्राट रूपसे इन प्रदेशोंके अधिपति नहीं वरन भीनमालके गुर्जरोंके सामन्त थे। इनके इन प्रदेशों पर अधिकारका प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि हम धरसेन को अपने गुप्त वल्लभि संवत् २७० वाले लेख द्वारा खेटकपुर मंडल के आहारका ग्राम दान देते पाते हैं। - भीनमालके गुर्जरों का राज्य दक्षिणमें नर्मदा और उत्तरमें मारवाड, पश्चिममें काठियावाड और पूर्वमे संभवतः मालवाकी सीमा पर्यन्त हो गया था, परन्तु इन्होंने अपने इस साम्राज्य सुखका अधिक दिनों पर्यन्त उपभोग नही किया, क्योंकि इस समयसे लगभग ४०-४५ वर्ष पश्चात् उत्तर गुजरात पर मालवावालोंने अधिकार कर लिया था। जब मालवा वालोंका अधिकार गुजरतपर हुआ और भीनमालके गुर्जरोंको पुनः उत्तरमे और वरलभिवालोको पश्चिममे हठना पडा उस समय भरुचके साथ भीनमाल वालोका संबंध विच्छेद हुआ और भरूच नंदिपुरके गुर्जरवंशको किसी अन्य राज्यवंशके आधीन होना पड़ा। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या भीनमालके गुर्जरोंको नर्मदाकी उपत्यकाका प्रदेश लभिके मैत्रकोंके हाथ से प्राप्त हुआ था ? यद्यपि वल्लभिके मैत्रकोंका अधिकार, उत्तर गुजरात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy