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________________ १६५ [ लाट वासुदेवपुर स्वयं कि एकही समय कुन्टी प्रदेश जयसिंह और जयकर्ण दोनोंकी जागीरमें नहीं हो सकता । अब विचार है कि विक्रमने क्यों कुन्डी प्रदेश जयसिहसे लेकर अपने पुत्र जयकर्षको दिया। इस समय के बादही शक १०१० में विक्रमके सामन्त कदमबंशी शान्तिवर्मा को जयसिंहके वनवासी प्रदेश पर सामन्त रुपसे शासन करते पाते है। निश्चित है कि शक १०१४ के पूर्वहीं विक्रम और जयसिंहका मन भोटाव हो गया था । एवं वे दोनो लड गये थे। जयसिंह पराभूत होकर जंगलो में भागा था । विना पराभव उसके अधिकारका मुख्य प्रदेश वनवासी जिसमें उसकी राज्यधानी वलीपुरथी क्योंकर विक्रमके सामन्त कदमवंशी शान्तके अधिकारमें जाता । अतः हमे विक्रम और जयसिंहके मन मोटाव - विग्रह आदिको शक १००४ और १००६ के मध्य अनुसंधान करना पड़ेगा। हमारी समझमें शक १००४ में विक्रमका साम्राज्य जब जयसिंहके भुजबल प्रताप शौर्य से प्रदिप्त होकर कन्या कुमारी से लेकर चेदी देश और पश्चिममें लाट पर्यन्त शत्रुहीन हो चुका तो उसने अपते संबंधी गोवा के कदमबंशी सामन्त जयकेशी के मतले जयसिंहको नष्ट करनेमें प्रवृत्त हुआ और सर्व प्रथम उसने अपने पुत्र जयकणको कुन्डी विषपका जागीर दिया। कुन्डी विषप पट्टडकाल विषपके समीप था। अब हमे केशुवलाल - पट्टडकाल और कुन्ढी आदि प्रदेशों . का भौगोलिक अवस्थानका परिचय प्राप्त करना होगा । वनवासीके उत्तरमें पट्टडकाल है। पट्टडकाल और वनवासी के मध्यमें उन्ढी प्रदेश है । कुन्डी प्रदेश जयकर्णको देकर विक्रमने बेड छाड किया । जयसिंहका कुन्डी जाने नहीं नहीं वरण उससे और उत्तरवर्ती पट्टडकाल तथा अपने भावी युवराज पदकी रक्षाकी चिन्ता पड़ी होगी। अतः वह, लडने मरनेको तैयार हो गया होगा । जयसिंह और विक्रमकी विग्रहके वास्तविक तिथि प्राप्त करने के लिये हमे विशेष रुपसे प्रयत्न करना होगा । अतः निम्नभागमें विचार करते हैं। . शक १००६ के बाद ही शक १०१० में जयसिंहके अधिकृत वनवासी प्रदेश पर विक्रम के सामन्त कदमयशो शान्तिवर्माको पाते है। अतः हम कह सकते हैं कि विक्रमादित्यने जयसिंह के साथ प्रथम छेडछाड प्रारंभ किया था । और छेडछाड का श्री गणेश उसके संकेतसे जयपण ने किया । एवं उक्त छेडछाड केशुवल.ल प्रदेश पर हस्ताक्षेप किया था अथवा संभव है कि परिधिका स्पष्ट परिचय नहीं होनेले केशुकल.ल प्रदेशको अपने अधिकार मुक्त मान उसने हस्ताक्षेप किया हो । अथवा यह भी संभव है कि उसने जयसिंहका भावी युषराज स्वीकृत होना अपने न्यायोचित (विक्रमका ज्येष्ठ पुत्र होनेका कारण) अधिकार (भावी युवराज पद) का अपहरण मान लिया और अपने पिता के राजा होने तथा अपने नये उमंगके बल पर जयसिंहके साथ छेडछाड किया हो। चाहे जो को विक्रम और जयसिंहाके विग्रह का कारण जयकर्ण को कुन्डी आदि जागीर दिया जाना है । अतः इस विग्रह का दोष जयसिंह पर नहीं वरण विक्रम पर है। विल्दण ने लिखा है कि जयसिंह वनवासी से चलकर कृष्णा नदी पर्यन्त आकर विक्रम के राज्य के गमों को लुटने लगा । परन्तु यह नहीं बताया है कि जयसिंह वनवासी से । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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