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________________ ६३ [ लाट नन्दिपुर खण्ड कोकरण पति जयकेशी फोड़ उधृत अवतरणसे पर्याप्त रूपेण हो जाता है, तथापि और विक्रमकी मैत्री पर प्रकाश नहीं पड़ता । अतः जयकेशी के बोम्बे व. रा. ए. जो. जि ६ पृष्ठ २४२ मे प्रकाशित लेखका अवतरण देते हैं । " वियदाप्राप्त कीर्तिः श्री जयकेशी नृपोऽभवत । भूभृत जाण परायणः पृथुयशा गंभीर्य रत्नाकरः श्री प्रेमार्ड नृपः पयोनिधिनिभः सोमानुजां कन्यकां । यस्मै विस्मयकारी भूरी विभवैः देवेन कोषादिभिः ख्यातः श्री पतये स मैमल महादेवीं कृतार्थोऽभवत ॥ "" उधृत अवतरणका अभिप्राय यह है कि विक्रमादित्यने अपनी मैंमल महादेबी नामक कन्याका जयकेशी प्रथम के साथ विवाह कर दहेज में प्रचूर धनराशी तथा हाथी घोडे आदि दिये । इस लेखका समर्थन जयकेशीके उत्तराधिकारी तथा पुत्र शिवचितिके उक्त जर्नल के पृष्ठ २६७ में प्रकाशित लेख से होता है । "6 स कोंकणक्ष्मातल रत्नदीप स्तस्मा दथासी ज्जयकेशि भूपः । साहित्य लीला ललिता भिलापः संभावितानेक सुधी कलापः ॥ चौलुक्य वंशेऽथ जगत्प्रकाश. प्रादुर्वभूवो र्जित कोणदेशः । दिशांपतीनामपि चित्तवर्ती पराक्रमी विक्रम चक्रवर्ती ॥ उपयेमे सुतां तस्य जयकेशी महीपतिः । " स मैमल महादेव जानकी मिव राघवः ॥ इससे स्पष्ट है कि विक्रम ने जयकेशीको अपनी कन्या और दहेज के बहाने प्रचूर धनराशी देकर अपना मित्र बनाया था। इनकी मैत्री ने विवाह संबंधसे परिमार्जित होकर दोनोंको एक उद्देश्य बना दिया था। दोनों एक मत होकर सोमेश्वर के विनाश साधन में संलग्न थे । अतः इन दोनोको अपना कार्य साधन करनेके लिये सोमेश्वर के शत्रु-नहीं चौलुक्योंके के वंशगत शत्रु, को मित्र बनाना लाभदायक प्रतीत हुआ । और जयकेशी ने मध्यस्थ बन मैत्री स्थापित कराया था । अतः यह निर्विवाद है कि जयकेशी ने कांची पति वीर राजेन्द्र और विक्रम के मध्य मैत्री करायी थी । और जब सोमेश्वर और वीर राजेन्द्र के मध्य युद्ध उपस्थित हुआ तो विक्रम पूर्व निश्चयके अनुसार वनवासीसे युद्धके लिये आया परन्तु युद्ध प्रारंभ होते ही युद्धक्षेत्र छोडकर वीर राजेन्द्र के पास चला गया। जिसने विक्रमका बहुतही आदर सत्कार किया और अपने युवराज के समान उसके गले में कन्ठी बांधी। एवं उसे अपना चिर सहचर बनाने तथा सोमेश्वर का नाश संपादन करने के विचार से अपनी कन्याका विवाह करके सोमेश्वरसे छीने हुए रट्टपाटी प्रदेश दहेज में दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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