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________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ६२ पूर्व में हम जयसिंह की शक १९५ वालीहुलेगुन्डी सिध्धेश्वर प्रशस्ति उधृत कर चुके हैं । उक्त प्रशस्ति में जयसिंहने अपने सबसे बडे भाई सोमेश्वर भुवनमल्ल को अधिराजा स्वीकार किया हैं । अतः यह प्रशस्ति शक ६६५ के बादकी है । सोमेश्वर भुवनमल्ल का अन्तिम लेख शक ९६८ भाद्रपद का है। उधर विक्रमादित्य के लेखमें उसके राज्य वर्ष प्रथमका चौलुक्य विक्रम संवत्सर के नामसे उल्लेख किया गया है । साथहीं. उसके प्रथम वर्ष के लेख में बार्हस्पत्य नामक संवत्सरका वर्णन है। सोमेश्वर के अन्तिम लेख में संवत्सरका उल्लेख नहीं है तथापि वार्हस्पत्य संवतसरका अनयासही हम परिचय प्राप्त कर सकते हैं । जयसिंहकी शक ६६३ वाली प्रशस्ति में विरोधिकृत और शक ६६५ वाली प्रशस्ति में प्रमादि संवतरका उल्लेख है । संवतसरके ६० नामवाले चक्र पर दृष्टिपात करनेसे ज्ञात होता हैं कि विरोधी संवतसर से पांचवा और प्रमादि संवतरसे तीसरा स्थान निम्नभाग में वार्हस्पत्य संवतसरका है । एवं ६६३ से पचंवी और ६६५ से तीसरी संख्या ६६८ है । अतः सिद्ध हुआ कि विक्रमादित्य शक ६६८ के भाद्रपद के पश्चात किसी समय सोमेश्वरको हठाकर गद्दी पर बैठा था । इस लिये प्रस्तुत लेखकी तिथि शक ६६८+३=१००१ है । जयसिंह के शक ६६३ वाली प्रशस्ति से हमें ज्ञात है कि विक्रमादित्य के सोमेश्वर के शत्रु कांचीपति वीर राजेन्द्र चोल से मिलजाने परभी उसने युद्धक्षेत्र में अपने स्थानको नहीं छोड़ा था और सोमेश्वरकी रक्षा की थी । एवं शक ६६५ वाली प्रशस्ति से भी जयसिंहका सोमेश्वर पर अनन्य प्रेम प्रकट होता है । अतः विचारनीय है कि शक ६६५ और ६६८ के मध्य विक्रमादित्यने जयसिंह को किस प्रकार सोमेश्वर से विमुख कर अपना साथी बना लिया । बिल्हण के विक्रमाङ्क देव चरित्रकी पर्यालोचनसे हमें ज्ञात है कि विक्रमादित्य ने सर्व प्रथम सोमेश्वर के विश्वास पात्र सामन्त गोपपठन गोकर्णपति कदमवंशी जयकेशी प्रथमको अपना मित्र बनाया और वहांसे आगे बढ़ कर कुछदिनो वनवासी में रहा । बादको वह चोल देशके प्रति युध्ध करनेको चला तो चोल राज ने सुलह कर विक्रम के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया । परन्तु हमारी समझमें बिल्हणने यहांपर केवल डींग मारी है। राजेन्द्र चोलके लेखका अवतरण देकर जयसिंहकी शक ६६३ वाली प्रशस्ति में हम विक्रमादित्य का युद्धक्षेत्र में सोमेश्वर का साथ छोड राजेन्द्र चोल से मिल जाना दिखा चुके हैं। यहां पर हम बिल्हण कथित कोंकन पति जयकेशी के लेख का अवतरण देकर चोल नरेशकी मैत्री संबंधी बिल्हण के पोलका भण्डा फोड करते हैं । बोम्बे रायल एसिआटिक सोसाएटि के जर्नल जिल्द ६ पृष्ठ २४२ प्रकाशित जयकेशी के लेखके वाक्य " ततः प्रादुर्भूत श्रीमान जयकेशी महीपति चौलुक्य चौल भुपालौ कांच्यां मित्रे विधाययः" से प्रकट होता है कि जयकेशी ने वीर राजेन्द्र चोल और विक्रम के मध्य मैत्री कराया था । यद्यपि बिल्हणका भण्डा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034491
Book TitleChaulukya Chandrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandswami Shreevastavya
PublisherVidyanandswami Shreevastavya
Publication Year1937
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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