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________________ [ ७२] सवगच्छवाले बहुतसाधुमोको आहार, पानी, तथा संयम उपकरणोंसे निर्वाह होता है। ऐसे महान् शासन प्रभावक परम उपकारी महाराजोने पूर्वाचार्योंकी प्रवृत्ति मुजब तथा आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसारही सत्य प्ररूपणाकरी है, मगर शास्त्राविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणानहींकरी . जिसपर भी कितनेक पक्षपातीजन उपकारी महाराजोके उपकारोंको छुपा देते हैं, और छठे कल्याणक प्रकटकरनेकी तथा स्त्रीपूजा निषेधकरने की नवीन प्ररूपणाकरने का झूठा दोषलगाकर अनेक तरहले निंदा करते हुए आक्षेप करते हैं। उन्होको परभवमे जीभ मिलना मुश्किल है यहबात तपगच्छवालेही गुणानुरागी मध्यस्थ भावसे लिखते हैं। अर्थात् ऐसे उपकारोंको भूलकर झूठा दोष लगाकर निंदा करनेवाले एकेन्द्रिय होवेंगें, फिर उन्होको जैनधर्म प्राप्त होना बहुत मुश्किल होवेगा, संसारमे बहुत काल परिभ्रमण करेंगे. इसलिये भवभिरु आत्मार्थी भव्य जीवोंको संसार परिभ्रमण के हेतुभूत उपकारी पुरुषोंकी झूठी निंदा करके भोले जीवोकों मियत्वमें गेरनेरूप अमर्थ करना सर्वथा अनुचित है । और ऊपरके लेखसे श्रीरत्न विजयजीके लेखमुजब तपगच्छके तथा खरतरगच्छके आपस में विशेषरूपसे संप की वृद्धि होना चाहि य और कुसंपके कारण भूत पर्युषणामें खंडनमंडनके विवाद वाले विषयोंकों सर्वथा त्याग करके संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में कटि बद्ध होना, यही अपने और दूसरे भव्यजीवों केभी आत्म कल्याणका हेतु है । ऐसी ही श्रद्धा तथा प्ररूपणा और प्रवृत्तिका शुद्ध हृदयसे व्यवहारकरके उपकारी पुरुषोंकी झूठीनिंदा छोडकर; प्राचीन पूर्वाचायकी परंपरामुजब शास्त्रानुसार आषाढ चौमाली से ५० दिने दूसरे श्रावण या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा पर्वका अराधन करके तथा श्री महावीर स्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकोंको आगमानुसार भावपूर्वक मान्य करके भगवान्की आज्ञानुसार धर्मकार्यों से निज और परका कल्याणकरो, संसार परिभ्रमण के दुःख से छुटो, और अक्षय सुख प्राप्त करो. यही आत्मिक हृदयकी विशुद्ध प्रेम भावसे आत्महितैषी पाठक गण भव्य जीबोंके प्रति प्रार्थना है. इति शुभम् . विक्रम संवत् १९७७, प्रथम श्रावण शुदी १३ बुधवार ० हस्ताक्षर - श्रीमान् उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके लघुशिष्य - मुनि - माणिसागर. जैन धर्मशाल, धुलिया - खानदेश. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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