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________________ [७१] . वांचेछे तथा चरित्रोनां चरित्रो वांचेछे, ग्रंथो वांचेछे ते घणेभागे खरतर गच्छना बनावेला ग्रंथो छ, परस्पर गच्छवालाओ वांचे छे सर्व गच्छवालाओ श्रद्धाथी सांभले छे 'पुरुष विश्वासे वचन वि श्वास' जेना बनावेला पुस्तको हाथमां लई सन्मुख धरी वांचो छो, अने मोढेथी तेज आचार्योनी बद बोई कराय. आजे दादा साहेबने मानवा वाला चरण पादुकाना दर्शन करनारा तपगच्छवाला हजारो भाविक भक्तो छ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुखने माननारा स्व. रतरमच्छना हजारो भाविक भक्तोछे. आवा शंभु मेलामां खाली वि. क्षेप पेदा करवाथी कोईन कल्याण थवानुं नथी " इत्यादि. - देखो-ऊपर मुजब खास तपगच्छके श्रीरत्नविजयजीके लेखपर खूब दीर्घ हाष्टसे विवेकपूर्वक विचार किया जावे, तो श्रीपार्श्वमाथस्वामिकी परंपराके श्रीदेवगुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रकी प्राचीन टीका वगैरह शास्त्रानुसार पहिले पूर्वाचार्योंके समयसेही श्रीवीर प्रभुके २८ भव, तथा छ कल्याणक मानने वगैरह बाते प्रचलीतही थी. उन्हीके अनुसार श्रीजिनवल्लसूरिजी वगैरह महाराजोंने चैत्यपासियोंको हटाते हुए, भव्य जीवोंके सामने विशेषरूपसे प्रकटपने कथन की है। परंतु शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणा नहीं की, जिसपरभी आगमप्रमाणोंको उत्थापन करके शास्त्रकार महाराजोंके. अभिप्रायको समझे बिना अपनी मतिकल्पनासे शास्त्रपाठोंके खोटे खो टे अर्थ करके नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेका झूठा दोष लगाते हैं. सो प्रत्यक्षपणे मिथ्याभाषणकरके अपने दूसरे महावतका भंग करना और भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरना सर्वथा अनुचितहै। और श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्तभूरिजी महाराज जैसे शासन प्रभावक परम उपकारी पुरुषोंने, चैत्यवासियोंकी उत्सूत्रप्रकणाके तथा शिथिलाचारके मिथ्यात्वको हटाया, और क्षत्री-बारणादि लाखो अन्य दर्शनियोंको प्रतिबोधकर जैनी श्रावक बनाये, उ. म्होंकीही वंश परंपरा वाले अभी वर्तमानमेंभी गुजरात, कच्छ, मा. रवाड, पूर्व, पंजाब,दक्षिणादि देशोंमें लाखों जैनी विद्यमान मौजूद हैं। इसलिये उन महाराजोने परंपराके हिसाबले करोंडो जीवोंकों सम्यक्त्व प्राप्त कराने संबंधी बडाभारी महान् उपकार किया है। तथा विद्या मंत्र, देवसाह्य,व संयमानुष्ठान-आत्मशक्ति प्रकाशित कर. के बहुत बडीभारी जैनशासनकी प्रभावना करी. उन महाराजोंके प्रतिबोधे हुए श्रावकोकी वंश परंपरावाले भावकोसेही, वर्तमानिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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