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________________ [ ३७४ ] कुमुक्तियां करने वाले पुरुष नहीं थे परन्तु वर्तमान समय में श्रीजिनमूर्ति के निन्दक विशेष कुयुक्तियां करने लगे तो वर्तमान काठमें उसीके स्थापनेके लिये विशेष युक्तियां भी होती है। तैसेही इस वर्तमान कालमें तेरह मास छवीश पक्षक निषेध करने वाले सातवें महाशयजी जैसे शास्त्रों के तात्पर्य्यको नहीं जानने वाले पैदा हुवे तो उसीको स्थापन करनेके लिये इतनी व्याख्या भी मेरेको इस जगह करनी पड़ी नहीं तो क्या प्रयोजन था, अब न्यायदृष्टिवाले सत्यग्राही भव्यजीवोंको मेरा इतनाही कहना है कि जैसे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने श्रीसूयगडाङ्गजी, श्रीदशवैकालिकजी, श्रीउत्तराध्ययनजी वगैरह शास्त्रोंमें साधुके उद्देश करके व्याख्या करी है उसीको ही यथोचित साध्वीके लिये भी समझना चाहिये और श्रीवन्दीतासूत्रकी-"घउत्थे अणुव्वयंमि, निच्चपरदारगमण विरइओ ॥ आयरियमप्पसत्थे, इत्यपमायप्पसंगणं ॥ १५ ॥ अपरि गहिआ इत्तर" इत्यादि गाथायोंमें और अतिचारोंकी आलोचना वगैरहमें श्रावकका नाम उद्देश करके व्याख्या करी है उसीकोही यथोचित श्राविकाके लियेही समझना चाहिये इतने पर भी कोई विवेक शून्य कुतर्के करे किअमुक अमुक बातें साधुके और श्रावकके लिये तो कही है परन्तु साध्वी और श्राविकाके लिये तो नहीं कही है ऐसी कुतर्क करनेवालेको अज्ञानीके सिवाय, तत्त्वज्ञ पुरुष और क्या कहेंगे । तैसेही जिस जिस शास्त्र में चन्द्रसंवत्सरको अपेक्षासें जो जो बातें कही है उसीकेही अनुसार यथोचित अवसर, अभिवर्द्धित संवत्सरसम्बन्धी भी समझनी चाहिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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