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________________ [ २९५ ] अपनी बात संबन्नी शास्त्रका प्रमाण नही बतावोगे तब तक आपका दूसरोंको पूछना है सो निकेवल बाललीलावत् विवेकशून्यतासे अपने नामकी हासी करने का कारण है सो विद्वान् पुरुष स्वयं विचार सकते है. दूसरा-श्रीवल्लभविजयजी में मेरा (इस ग्रन्थकारका) बड़ेही आग्रहके साथ यही कहना है कि आपने ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंको आशा अंगका दूषण लगाया सो शासप्रमाण मुजब और न्यायकी युक्ति करके सहित सिद्ध कर दिखावो अथवा नहीं सिद्धकरसकोतो श्रीचतुर्विध संघ समक्ष मन बचन कायासें अपनी उत्सूत्रभाषणके भूलकी क्षमा मांगकर मिथ्या दुष्कृतसें अपनी भात्माको भवान्तर में उत्सूत्रभाषण की शिक्षा भोगनेसें बचालेवो ; और आप इन दोनु मेसें एक भी नहीं करोगे और इस बातको छोड़कर निष्प्रयोजनकी अम्यअन्य बातोंसें इधा वाद विवाद खण्डन मरहन तथा दूसरेकी निन्दा अवहेलनासे झगड़ा टंटा कर के आपसमें जो जो संपसे शासन उमतिके और भव्य जीवोंके उद्धारके कार्य होते है जिसमें विघ्न कारक राग द्वेष निन्दा ईर्षासें कर्म बन्धके हेतु करोगे करावोगे और मिथ्यात्वको वढावोगे जिसके दोषाधिकारी निमित्त भूत दम्भप्रियजी श्रीवविजयजी खास आपही होवोगे इस लिये विष्प्रयोजनकी अन्याय कारक वृथा अन्य अन्य बातों को छोड़कर अपनी बात संबन्धी शास्त्रका प्रमाण दिखावो अथवा अपनी भूल समझके क्षमाके साथ मिथ्या दुष्कृतदेवो नहीं तो आप आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी हो ऐसा कोई भी सज्जन नहीं मान सकेंगे किन्तु इस लौकिकमें दृष्टिरागि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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