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________________ गिनती अनादि स्वयं सिद्ध है जिसका खण्डन करके और श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् धुरन्धराचार्योंमें और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके भी पूर्वाधाोंने श्रीवीर. प्रभुके, छ कल्याणक अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक कहे हैं तथापि आप लोग श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी और अपने पूर्वजोंकी आशातनाका भय न करते उन्ही महाराजांके विरुद्ध हो करके, छ कल्याणकका निषेध करते हो और श्रीखरतरगच्छवालोंके ऊपर मिथ्या कटाक्ष करते हुए अनेक बातोंका टंटा खड़ा करनेका कारण करनेवाले आप जैसे अनेक कटीबद्ध तैयार है और अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते है इस बातको इसीही ग्रन्थको संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेगे और इसका विशेष विस्तार इसीही ग्रन्यके अन्तमें भी करने में आवेगा वहां श्रीखरतरगच्छवालोंकी कैसी सरलता है और श्रीतपगच्छवाले आप जैसोंकी कैसी वक्रता है जिसका भी अच्छी तरहसे निर्णय हो जावेंगा। - और आगे फिरभी छठे महाशयजीने लिखा है कि ( उनमें-अर्थात्, तपगच्छके खरतरगच्छके आपसमें-फरक पड़नेसें कुछक दबे हुए जैनशासनके वेरियोंका जोर हो जानेका सम्भव है) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना पड़ता है कि--छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी आप श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके आपसमें विरोध बढ़ाकर संपको नष्ट करना नही चाहते हो और दोनुं गच्छको संपसे मिले जुलेसें रहनेकी जो आप अन्तर भावसे इच्छा रखते हो तबतो श्रीजिनाज्ञा मुजब अनेक महत् शास्त्रों के प्रमाण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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