SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२७ ] संसारकी खाड़में गिरे और अपनी आत्माका बचाव तो करना दूर रहा परन्तु भोले जीवों को भी उसी रस्ते पाहु. चाये सो उपरके लेखसै पाठकवर्ग विशेष विचार लेना; और अधिक मासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये न्यायरत्नजीने मुसल्मानोंके ताजिये हरेक अधिक मासके हिसाबसे फिरनेका दृष्टान्त दिखाके सर्वज्ञ कथित पर्युषणा पर्व भी अधिक मासके हिसाबसे फिरते रहनेका न्यायरता जीने लिखा सो बड़ी अज्ञता प्रगट किवी है जिसका कारण यह है कि श्रीसर्वज्ञ भगवानोंने मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी खास करके विशेष जीवदयादिककेही कारणे वर्षा ऋतुमें आषाढ़ चौमासीसे उपरके लिखे दिनोंके गिनतीकी मर्यादा [प्रमाण से निश्चय करके श्रावण अथवा भाद्रपद मेंही-कारण, कार्य, ऋतु, मास, तिथिका नियमसें ही श्रीपर्युषणापर्वका आराधन करना कहा है तथापि न्यायरत्नजी अधिक मासके हिसाबसें पर्युषणापर्व फिरते हुए चले जानेका लिखकर जैन शास्त्रों के विरुद्धार्थमें आषाढ़, ज्येष्ठ, वैशाखादिमें पर्युषणा होनेका दिखाते हैं इसलिये न्यायः राजीकी असतामें कुछ कम हो तो पाठकवर्ग तत्वार्थकी बुद्धिसें स्वयं विचार लेना ;. तथा और भी न्यायरत्नजीके विद्वत्ताकी चातुराईका नमुना सुनिये-कि श्रीजैन शास्त्रों में पांच प्रकारके संवत्सरों से एक युगका प्रमाण कहा हैं जिसमें सूर्यको गतिका हिसाबसें सर्य संवत्सरकी अपेक्षासें जैनमें मासवृद्धिका अभाव हैं परन्तु चन्द्र की गतिका हिसाबसें चन्द्रसंवत्सरकी अपेक्षासें एक युगकी पूरतीकेही लिये खास दो अधिकमास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy