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________________ पाठकवर्गको प्रत्यक्ष दिख जावेंगा तथा और भी न्यापा. भोनिधिजीने जनसिद्धान्तसमाचारी नामको पुस्तकमें अनु. मान १५० अथवा९६० शास्त्रोंके विरुद्धार्थ में अनेक जगह प्रत्यक्ष मिथ्या तथा अनेक जगह मायावृत्तिरूप और अनेक जगह शास्त्रों के आगे पीछेके पाठ छोड़के अधूरे अधूरे तथा शाता कारके अभिप्रायके विरुद्ध अनेक जगह अन्याय कारक और अनेक सत्य बातोंका निषेध करके अपनी कल्पित बातोंका उत्सत्र भाषणरूप स्थापन इत्यादि महान् अनर्थ करके भोले दूष्टिरागी गच्छ कदाग्रही बालजीवोंकों श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाका मोक्षरूपी रस्तापरसें गेरके संसाररूपी मिथ्यात्व का रस्तामें फसानेके लिये जैन सिद्धान्त समाचारी, पुस्तक का नाम रखके वास्तविकमें अनन्त संसारकी इद्धिकारक मिथ्यात्वरूप पाखण्डकी समाचारी न्यायाम्भोनिधिजीने प्रगट करके अपनी आत्माकों इस संसाररूपी समुद्र में क्या पा इनामके योग्य ठहराई होगी तथा अब इन्होंके परिवार वाले और इन्होंके पक्षधारी भी उसी मुजब वर्तते है जिन्होंकों इस संसार में क्या इनाम प्राप्त होगा सो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें ;-इम लिये श्रीसङ्घकों और न्यायाम्भोनिधि जीके पक्षधारी तथा इन्होंके परिवार वालोंको उपर की पुस्तक सम्बन्धी बातोंके लिये मेरा अभिप्राय इस पस्तकके अन्तमें विनती पूर्वक जाहिर करने में आवेगा और पांचवें महाशय न्यायरबजी श्रीशान्तिविजयजी तथा छठे महाशय श्रीवमभविजयजी और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा में प्रसङ्गोपात थोड़ी थोड़ी बातोंका उपर की पस्तक सम्बन्धी दर्शाव भी करनेमें आवेगा ;पति चौर्षे महाशय न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजीके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समासः॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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