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________________ [ २९९ ] पर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तयें भी और लौकिक रीति भी विरुद्ध है) यह न्यायान्शोनिधिजी का उपरोक अपनी पुस्तके पृष्ठ ९३ की पंक्ति१२ वी तकका लेख है ; इस उपरके लेखकी विशेष समीक्षा खुलासा के साथ लौकिक और लोकोत्तर दृष्टान्त सहित युक्ति पूर्वक पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रोशान्ति विजयजीके नामसे और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामसें करनेमें आवेगा तथापि संक्षिप्त इस जगह भी करके दिखाता हूं जिसमें प्रथमतो अधिक मासको निषेध करने के लिये न्यायाम्भोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और इन्होंके पक्षधारी एक दो छोड़के हजारों कुयुक्तियां करके बालदृष्टि रागियों को दिखाकर अपने दिल में खुसी मामे परन्तु जैन शास्त्रोंकी स्याद्वादशैली के जानकार आत्मार्थी विद्वान् पुरुषोंके आगे एक भी कुयुक्ति नही चल सकती है किन्तु कुयुक्तियांके करने वाले उत्सूत्र भाषणका दूषण के अधिकारी तो अवश्य ही होते हैं इस लिये उपरके लेख में न्यायांभोनिधिजीनें युक्क्रियां के नामसे वास्तविक में कुयुक्लियां दिखा करके अधिक मासको गिनती में निषेध करना चाहा सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि दीवाली ( दीपोत्सव ) और ओलियां यह दोन कार्य जैन शास्त्रों में लोकोत्तर पर्वमे माने हैं सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायांभोनिधिजी ओलियांकों लौकिक पर्व लिखते कुछ भी मिथ्या भाषणका भय न किया मालुम होता है, और दीवाली शास्त्रकारोंने कार्त्तिक मास प्रतिबद्ध कही है सो जगत् प्रसिद्ध है और मारवाड़ पूर्व पञ्जाबादि देशोंके जैनी अच्छी तरह जानते हैं और वास न्यायांभोनिधिजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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