SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २९ ] इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्ग को दिखाता - जिसमें प्रथमतो. न्यायांनोनिधिजीकों ज्योतिषग्रन्यका विवाहादि कार्योंका दृष्टान्त दिखा करके पर्युषणा पर्वका निषेधः करमाही. उचित नहीं है. इसका उपरमें अच्छी तरहसें खुलासा हो गया है और दूसरा यह है कि श्री तीर्थकर गणधरादि. महाराजोंने... मासद्धिको कालचूलाकी उत्तम ओपमा दिवी है तथापि न्यायांभोनिधिजीने तीनों महाशयोंका अनुकरण करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थमें तथा इन महाराजोंकी आशातना का भय न करते मासऋद्धिको नपुंसककी तुच्छ ओपमा लिख करके भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसाये हैं सो बड़ाही अफसोस है और तीसरा यह है कि रत्नकोषाख्य (रत्नकोष) ज्योतिष शास्त्र में तो मुहूर्त के निमित्तसें जो जो कार्य होते हैं उसी में अनेक. कारण योग वर्जन किये हैं उसीकों सब को छोड़करके सिर्फ एक अधिक मास सम्बन्धी लिखते हैं सो भी न्यायांभोनिधिजीको अन्याय कारक है. इसलिये मुहूर्त के कायौँको दिखाकर बिना मुहूर्तका पर्युषणापर्व करनेका निषेध करना योग्य नही हैं। . ... .. और भी चौथा सुनो-(यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभकार्य है सोझी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक. मासमें त्यागने चाहिये) इसपर मेरा इतना ही कहना है कि पूर्वोक्त तीनों महाशय और चौथे न्यायाभोनिधिजी यह चारों महाशय अधिकमासको नपुंसक कहके जो सर्व.शुभकार्य त्यागने का ठहराते है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि पौषध, प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy