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________________ [१९६] किये ऐसे मिथ्या लिखना उचित नही था, इसका विशेष विचार पाठकवर्ग अपनी बुद्धिसें स्वयं कर लेना ; — और ( इसी द्वितीय प्रकरण में ऐसा श्लोक है यथाहरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्ते न लग्नमन्वेष्यं ॥ लग्न शांशाधिपयो, नचास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥१॥ भावार्थ: अधिक मासादिक जितने स्थान बतायें उसमें शुभकार्य नही होते हैं तो अब बारा मासिक पर्युषणापर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ) इस उपरके लेखसे न्यायांभोनिधिजीनें अधिक मासमे पर्युषणा करनेका निषेध किया इस पर मेरेकों प्रथमतो इतनाही लिखना पड़ता है कि उपरके लोकका अधूरा भावार्थ लिखके न्यायाम्भोनिधिजीनें भोले जीवोंकों भ्रममें गेरे हैं इसलिये इस जगह उपरके लोकका पूरा भावार्थ लिखने की जरूरत हुई सो लिखके दिखाता हूंहरिशयने, याने, जो श्रीकृष्णाजीका शयन (सोना) लौकिक में आषाढ शुक्ल एकादशी (११) के दिन कार्त्तिकशुक्ल एकादशी के दिन तक चार मासका ( परन्तु मासवृद्धि दो श्रावजादि होनेसें पांच मासका ) कहा जाता हैं उसीमें ९, और वैशाखादि अधिक मास में २, गुरुका अस्तमें ३, शुक्रका 'अस्त में ४, और ज्योतिष शास्त्र मुजब लग्नके नवांशांका अधिपति नीचा हो ५, अथवा अस्त हो ६, इतने योगों में पण्डित पुरुषको लग्न नही देखना चाहिये क्योंकि उपरके 'योगों में लग्न देखे तो शुभ फल नही हो सकता है इसलिये ज्योतिषशास्त्रों में उपरके योगों में लग्न देखनेकी मनाई किवी हैं इस तरह उपरोक्त श्लोकका भावार्थ होता है ॥ १ ॥ अब न्यायाम्भोनिधिजीने नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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