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________________ [ ११४ ] मानही ठहरा कर फिर वार्षिक कृत्य अभिवर्द्धित संवत्सरमें मी दशपञ्चके पचासदिने ठहराते होयेंगे तो भी तीनों महाशयोंको जैन शास्त्रोंका अति गम्भिरार्थका तात्पर्य समझमें नही आया मालुम होता है क्योंकि जिस जिस शास्त्रमें दशपञ्चके पचासदिने अवश्य पर्युषणा करनी कही है सो निकेवल चंद्रसंवत्सरमें ही करनी कही है भतु अभिवर्द्धित संवत्सरमें क्योंकि दशपञ्चक तकका विहार चंद्रसंवत्सरमेंही होता है और अभिवर्द्धित संवत्सरमें तो निकेवल चारपञ्चकमें वोशदिने निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा किवी जाती थी सो उपरमें भी विस्तार पूर्वक लिख आया हुं-जिससे चारपञ्चकके उपर सर्वथा प्रकारसे विहार करनाही नही कल्पे तथापि अभिवर्द्धितमें वीशदिनके उपरान्त विहार करे तो छकायके जीवोंको विराधना करने वाला और आत्मघाति आज्ञा विराधक कहा जाता है सो श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी वृत्ति वगैरह शास्त्रो में प्रसिद्ध है इसलिये अभिवर्द्धित संवत्सरमें दशपञ्चक कदापि नही बनते हैं जहाँ जहाँ दशपञ्चके पचासदिने पर्युषणा करनेकी व्याख्या लिखी है सो सब चंद्रसंवत्सरमें करनेकी समझनी__ और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहां वर्षाकालमें ठहरे हैं इस वाक्यको देखके तीनों महाशय वीशदिनको पर्युषणाको कहने मात्रही ठहराते होवेंगे तब तो इन तीनों महाशयोंकी गुरुगम रहित तथा विवेक बिनाकी अपूर्व विद्वत्ताको देखकर मेरे को बड़ा आश्चर्य आता है क्योंकि जैसे अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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