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________________ [ ८८ ] थाओ" के ज्यां श्रावकोने आवा शिष्टजनने निन्दनीय सृषा भाषण वगेरा कुकर्म थी अटकाववानो उपदेश करवामां नथी आवतो ओवो रोते निन्दा करवाथी ते प्राणिओ क्रोड़जन्मो लगी पण बोधिने पानी शकता नथी तेथी ते अबोधिबीज कहवायें छे अने ते अबोधिबीजथी तेवी निन्दा करनारनो संसारवधे छे एटलुंज नहीं पण तेना निमित्त भूत श्रावकनो संसार बधे छे, जे माटे कहेलु छे के-जे पुरुष अजाणतां पण शासननी लघुता करावे ते बीजा प्राणिओंने तेवी रोते मिथ्यात्वनो हेतु थई तेना जेटलाज, संसारनु कारण कर्म बांधवा समर्थ थई पड़े छे के जे कर्मविपाक दारुण घोर अने. सर्व अनर्थनुं वधारनार थइ पड़ेळे ॥ १-२ ॥ उपर में अन्यथा अयथार्थ भाषण अर्थात् विसंवादी वाक्यरूप मिथ्याभाषणादि करने वाला श्रावक निश्चय करके मिथ्या दृष्टि जीवोंको विशेष मिथ्यात बढ़ानेवाला होता है और उससे दूसरे जीव धर्म प्राप्त नही कर सकते हैं किन्तु ऐसे श्रावकको देखके जैन शासनकी निन्दा करने वालोंको संसारकी वृद्धि होती है । और विसंवादरूप मिथ्याभाषण करनेवाला श्रावक भी निन्दा करानेका कारणरूप होने से अनन्त संसारी होता है तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुषको विचार करना चाहिये कि श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् होते भी अनेक जैनशास्त्रों के विरुद्ध और अपने स्वहस्ते अभिवति संवत्सर उपर में लिखा है जिसका भी भङ्ग कारक अधिकमास की गिनती निषेधरूप विसंवादी मिथ्या वाक्य भी अपने स्वहस्ते लिखते अनन्त संसार वृद्धिका भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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