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________________ [ ८७ ] अपने बनाये ग्रन्थ में लिखना क्या उचित है। कदापि नही और इसी ही श्रीधर्मरत्नप्रकरणके दूसरे भागमें पृष्ठ २४६ की आदिसे पृष्ठ २४७ की आदि तकका लेखमें विसंवादी आदि वाक्य बोलने वालेको जो फलकी प्राप्ति होती है सो दिखाते है यथा अन्यथा भणनमयथार्थजल्पनमादिशब्दाबंधक क्रिया दोषोपेक्षासद्भावमैत्री परिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्येति भावः-अबोधैर्धर्माप्राप्त /जं मूलकारणं परस्य मिथ्या द्रष्ट - नियमेन निश्चयेन भवतीति शेषः । तथाहि-श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः सम्भवन्ति ॥ धिगस्तु जैनं शासनं ? यत्र श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकभाषणादौ कुकर्मणि नितिर्नोपदिश्यते ॥ इति निन्दाकरणादमी प्राणिनो जन्मकोटिष्वपि बोधि न प्राप्नुवन्तीत्यबोधि बीजमिदमुच्यते ततश्चाबोधिबीजाद् भव. परिवद्धिर्भवति तन्निन्दाकारिणस्तनिमित्तभूतस्य श्रावकस्यापि यदवाधि-शासनस्योपघातेयो-नाभोगेनापि वर्त्तते सतन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनामिति ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणं विपाकदारुण घोरं सर्वानर्थ विवर्द्धन ( मिति ) ॥२॥ टीकानो अर्थः-अन्यथा भणन एटले अयथार्थ भाषण आदि शब्द थी वंचक क्रिया दोषोनी उपेक्षा तथा कपट मैत्री लेवी अदोषो होय तो श्रावक बीजा मिथ्या दृष्टि जीवने नक्कीपणे अबोधिनुं बीजथइ पड़ेछे एटले के तेथी बीजा धर्मपामी शक्ता नथी। कारणके जे दोषोमां वर्तता श्रावकने जोह तेओ येवबोलेके "जिन शासनने धिक्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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