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________________ [५] जिसमें प्रायः करके गांव गांव में श्रीतपगच्छ के सब साधुजी अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्द करते है जिससे श्रीतीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वावा तथा श्री तपगच्छके पूर्वज पुरुषोंकी आज्ञाभङ्गका कारण होता है सो आत्मार्थी पुरुषको करना उचित नही हैं इसलिये जो श्रीतपगच्छके वर्तमानिक मुनिमहाशयोंको जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होवे तो अधिकमासकी गिनती निषेध करनेका छोड़ देना ही उचित है और आजतक निषेध किया जिसका मिथ्या दुष्कृत्य देकर अपनी आत्माको उत्सूत्र भाषणके पापकृत्योंसे बवानी चाहिये, तथापि विद्वत्ताके अभिमानसे और गच्छके कदाग्रहका पक्षपातके जोरसे उपर की बातको अङ्गीकार नही करते हुए अधिकमास की गिनती निषेध करते रहेगे तो आत्मार्थीपना नही रहेगा तथा अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे कोई आत्मार्थी प्रमाण नही कर सकता है इस लिये जैन शास्त्रानुसार श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाचाय्यैकी आज्ञा मुजब अधिकमास की गिनती सर्वथा प्रकार से अवश्यमेव प्रमाण करनी सोही सम्यक्त्व धारी पुरुषोंका काम है जैनटिप्यनानुसार पौष तथा आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी जब भी गिनतीमें लेते थे इस कारणसे तेरह चन्द्रमासोंसे संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित होता था, सो वर्तमान कालमें भी अनेक जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है तथा श्रीधम्मं तारंजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी, ये तीनो महाशय भी अभिवर्द्धित संवत्सर लिखते हैं जिसमें अधिकमासको गिनती आजाती है इस मतलबका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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