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________________ . [४] विच्छेद हुआ, तबसे लौकिक टीप्पणा मुजब मास पक्ष-तिथी-चारनक्षत्र-मुहूर्तादि व्यवहार जैन समाजमें शुरू हुआ. उसमें श्रावण भाद्रपदादि मासभी बढने लगे. तब जैनसंघने श्रीवीर निर्वाणसे ९९३ वर्षे अधिक महिने वाला वर्षमें २० दिने पर्युषणापर्व करनकी मर्यादा बंध करी और अधिक महिना हो, चाहे न हो, तो भी५० वें दिन प. र्युषणापर्वमें वार्षिक कार्य करनेका नियम रख्खा. सो " जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाऽऽषाढ एव वर्धते नान्ये मासास्तट्टिप्पणक तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते ततः पंचाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः" यह पाठ कल्पसूत्रकी सबी टीकाओं में प्रसिद्धही है । उसके अनुसार श्रावण बढे तो दूसरे श्रावण और भाद्रपद बढे तो प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने पर्युषणा पर्व करना जिनाशा है । और पहिले मास वृद्धिके अभावसे ५० वे दिन पर्युषण करतेथे, तब पिछाडी कार्तिक तक ७० दिन ठहरतेथे, मगर जब मा स वृद्धी होनेपर २० दिने पर्युषणा करतथे, तब तो पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरतेथे, यह बात निशिथभाष्य-चूर्णिपर्युषणाकल्पचूर्णि-बृहत्कल्प चूर्णि-वृत्ति-जीवानुशासनवृति, गच्छा चारपयन्नवृति, स्थानांगसूत्रवृति वगैरह शास्त्र पाठोंसे सिद्ध हो.ती है। और वर्तमानमें श्रावण, भाद्रपद तथा आश्विन बढनेपरभी ५० -दिने पर्युषणापर्व करनेसे पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरते हैं। यह भी कल्पसूत्रकी टीकाओके अनुसार होनेसे जिनाज्ञानुसारही है, इसलिये इसमे किसी प्रकारका दोष नहीं है.। इस ऊपरके शास्त्रीय लेखपर दीर्घ दृष्टिसे निष्पक्ष होकर मध्य. स्थ बुद्धिसे विचार किया जावे तो स्पष्ट मालूम हो जायेगा, कि-प. र्युषणा पर्व करनेमें जैन टिप्पणानुसार या लौकिक टिप्पणानुसार आधिक मास या कोई भी मास वा कोई भी दिन बाधक नहीं है. क्योंकि पर्युषणा पर्व करनेमें ५० दिनोंका व्यवहारिक गिनतीका नियम होनेसे पर्युषणा पर्व दिन प्रतिबद्ध ठहरता है. किंतु मास प्रतिबद्ध नहीं ठहर सकता । और ५० दिनोंकी गिनतीमें अधिक महिनेके ३० दिवस तो क्या मगर एक दिवस मात्रभी गिनतीमें नहीं छुट सकता। जिसपरभी पर्युषणा पर्व-- दो श्रावण होनेपरभी भाद्रपद मास प्रतिबद्ध ठहराना १. अधिक महिनके ३० दिनोंकों विचमेसे छोड देना २. वीश दिनोले पर्युषणा पर्व करने की बातको सर्वथा उडा देना ३. श्रावण भाद्रपद या आश्विन बढनेसे १०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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