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________________ [३] उपस्थित होगया. उसके विषयमें आगे लिखने में आवेगा, मगर इस जगह तो हम केवल पर्युषणा संबंधी थोडासा लिखते हैं. जैन पंचांगके अनुसार जब वर्ताव करनेमें आताथा तब पयु. षणासंबंधी " अभिवढियंमि वीसा, इयरेसु सीसई मालो" इत्यादि निशिथ भाष्य-चूणि, बृहत्कल्प भाष्य-चूर्णि-वृत्ति, पर्युषणाकल्प. नियुक्ति-चूर्णि-वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोंमें खुलासा लिखा है, कि, आषाढ चौमासीसे वर्षाऋतुम जीवाकुलभूमि होनेसें जीवदयाके लिये, मुनियोंको विहार करने का निषेध और वर्षाकालमे १ स्थानमें ठहरना उसका नाम पर्युषणा है. इसलिये जब अधिक महिना होवे तब उसको तेरह (१३) महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे २० वे दिन प्रसिद्ध पर्युषणा करना । और जिस वर्षमें अधिक महिना न आवे तब उसको १२ महिनोंका चंद्रवर्ष कहते हैं, उस वर्ष में आषाढ चौमासीसे ५० वे दिन प्रसिद्धपर्युषणा करना [ वर्षाकालमें रहनेका निश्चय कहना] उसीमेंही उ. सीदिन वार्षिक कार्य और उसका उच्छव किया जाता है, यह अनादि नियम है. इसलिये निशिथ चूर्णि, पर्युषणा कल्पनियुक्ति, चू. र्णि, जिवाभिगमसूत्रवृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, कल्पसूत्रमूल और उसकी सबी टीकाओंमें संवच्छरी शब्दकोभी पर्युषणा शब्दसे व्या. ख्यान कियाहै, और प्रसिद्ध पर्युषणा के दिनसे भिन्न (अलग) वा. र्षिक कार्योंका दिन कोईभी नहीं है, किंतु एकही है. इसीका पर्युषणा पर्व कहो, संवच्छरीपर्व कहो, सांवत्सरिकपर्व कहो या वार्षिक पर्व कहो, सबका तात्पर्य एकही है । और कारणवश " अंतरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पर तं रयणि उवायणा वित्तए" इत्यादि कल्पसूत्र वगैरह शास्त्र पाठोंके प्रमाणसे आषाढ चौमासीसे ५० वें दिन पहिले तो पर्युषणा करना कल्पताहै, मगर ५० वे दिनकी रात्रिको उल्लंघन करके आगे करना नहीं कल्पताहै। ५० वे दिनतक पर्यु षणाकरनेको ग्राम नगरादि योग्यक्षेत्र न मिलसकेतो, जंगलमेंभी वृक्ष नीचे अवश्य पर्युषण करनाकहाहै । और अभिवद्धितवर्षमें २० दिने, तथा चंद्रवर्षमे ५० दिने पर्युषणा न करे और विहार करेतो "छक्काय जीव विराहणा" इत्यादी स्थानांगसूत्रवृत्ति वगैरह पाठोसे छका. य जीवोंकी विराधना करनेवाला, आत्मघाती, संयम और जिना. ज्ञाको विराधन करनेवाला कहा है । यह नियम जैन पंचांगानुसार पौष और आषाढ बढताथा तब चलताथा, मगर जबसे जैन पंचांग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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