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________________ [१९] ४२- औरभी देखो खूप विचारकरो - शास्त्रोंमें विसंवादी कथन करनेवालोंकों मिथ्यात्वी कहेहैं, और जैनाचार्य तो अविसंवाद होते हैं. इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक यह महाराजभी विसंवादीनहींथे. किं. तु भविसंवादथे, इसलिये इन्हीं महाराजके बनाये वृत्ति-प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमेंसे एकही विषय में पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्य किसीभी ग्रंथ किसी जगह भी देखनेमें नहीं आते, इसलिये इन स हाराजकी बनाई सामाचारीमेंभी विसंवादी वाक्य नहीं हैं, किंतु 'पंचाकसूत्रवृत्तिके अनुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का पाठथा, उसको उड़ा करके इन महाराजके सत्य कथन के पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप प्रथमइरिया वही पीछे करेमि भंते कहने का पा उबनाकर भोलेजीवों को बतलाकर खोटी प्ररूपणा करनेवालोंकी बड़ी भारीभूलहै. यह महाराज तो विसंवादी कथन करनेवाले कभी नहींठहर सकते, मगर ऐसे महापुरुषोंके नामसे झूठापाठ बनानेवालेही मिथ्यारवी ठहरते हैं । अब पाठकगणसे मै इतनाही कहना है, कि - नवांनीवृत्तिकारकने या उन्होंकेशिष्योंने अथवा अन्य किसी भी जिनाशा के आराधक पूर्वाचार्य महाराजने किसी भी ग्रंथ में सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते किसी जगह भी नहीं लिखी, व्यर्थ भोले जीवोंको भरमानेका काम करना आत्मार्थियोंकों योग्य नहीं है । ४३ - कितनेक श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की बडी टीकाके नामसे लामायिकर्मे प्रथमद्दरियावही पछिकरेमिभंते करने का ठहराते हैं, सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है. क्योंकि देखो उत्तराध्ययन सूत्र में या इनकी बड़ी टीकाभ्रे सामायिक करने संबंधी प्रथमहरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कु छभी अधिकार नहीं है. किंतु- २९ वें अध्ययनमें “सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणेह ? सावज्जजोग विरहं जणयइ ॥ चउवीसत्थपणं भंते । जीवें किं जणेइ ? दंसण विसोहि जणइ ॥ वद्या: व्याख्या -' सामायिकेन ' उक्तरूपेण सहावद्येन वर्त्तत इति सा:- कर्मबंधन हेतवो योगा-व्यापारास्तेभ्यो विरतिः- उपरमः सावद्ययोगविरतिस्तां जनयति, तद्विरति सहितस्यैव सामायिक संभ वात्, न चैवं तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारण भावासंभव इति वाच्यं, केषुचित्तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत्कार्यकारण भावदर्शनाद्, एवं सर्वत्र भावनीयं ॥ सामायिकं च प्रतिपतुकामेन तत्प्रणेतारः स्तोतव्याः ते च तत्त्वतस्तीर्थकृत एवेति, तत्सूत्रमाह 'चतुर्विंशतिस्तवेन' एतदवसर्पिणी प्रभवतीर्थकर कीर्तनात्मकेन दर्शनं सम्यक्त्वं तस्यविशुद्धिः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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