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________________ [१०८] व्हीके उपचानकहेहैं,मगर परियावहीके पहिले करेमिभंतके उपाय नहींकडे,इसलिये सामायिकभी पहिले इरियावही करना योग्य है। पेला कहनेवालोंको सामायिकके स्वरूप संबंधी शास्त्रकारमहाराजों के अभिप्रायको समझमें नहीं आया मालूम होताहै। क्योंकि देखियेशास्त्रों में सामायिकको आत्मा कहा है, और इरियावही वगैरह कि. यारूपसूत्र कहेहैं,और आत्माके उपधान तो कभी होसकतेनहीं, किंतु आत्माकीशुद्धिरूप क्रियाके उपधान होसकते हैं. आत्मा तो स्वयं उपधान करनेवालाहै, और उपधान क्रियारूपहैं, सामायिकरूप आरमाके उपधान तोइरियावहीकेपहिले या पीछेभी किसी शास्त्रमें नहींकहे हैं, इसलिये आत्माके निजगुणरूप सामायिक संबंधी और हरियावहीव. गैरह आत्माकी शुद्धिरूप क्रियासंबंधी शास्त्रकार महाराजोंके भावा. र्थकोसमझेषिनाही पहिले इरियावहीके उपधानकरनेका पाठ देखकर सामायिकभी पहिलेइरियावही स्थापनकरते हैं, उन्होंकी अज्ञानताहै. ४१-कितनेकआग्रहीलोग नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी के नामसे अथवा उन्होके शिष्य श्रीपरमानंदसूरिजीके नामसे सामा. यिक पहिलेइरियावही पीछेकरेमिभंते कहनेसंबंधी श्रीअभयदेवसू. रिजीकृत 'सामाचारी' ग्रंथका पाठ भोलेजीवोंको बतलातेहैं, सोभी प्र. त्यक्ष मिथ्याहै,क्योंकि-देखो श्रीनवांगीवृत्तिकार महाराजने खास 'पं. वाशक' सूत्रकोवृत्तिमें सामायिकमें प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही खुलासापूर्वक लिखीहै, सर्व प्राचीन पूर्वाचार्यभी ऐसेही लिखे गयेहैं, यही बात जिनाशानुसार है । इसलिये इन्हीं महाराजने सास 'सामाचारी' ग्रंथमेभी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखी धी, उसपाठको निकाल देना और प्रथम इरियावही पीछे करेभिभंते कहनेका पाठ अपनी मति कल्पना मुजब नवीन बनवाकर बडे प्रौढ प्रामाणिकपुरुषोंकेबनाये ग्रंथ प्रक्षेपकरके भोलेंजीवाकोषतलाकर उ. मार्ग चलाना यह बडाभारीदोषहै, देखिये-कोईभीपूर्वाचार्यमहाराजने सामायिकमें प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते नहीं लिखी, किंतु प्र. थम करेमिभंते पीछे इरियावही सर्व प्राचीन पूर्वाचार्याने सर्वशास्त्रोंमें लिखीहै. तो फिर श्रीनवांगीवृत्तिकारक जैसे प्रौढ प्रामाणिक सर्व सम्मत यह महाराज सर्व पूर्वाचार्योंके विरुद्ध होकर प्रथम इरियाथही पीछे करेमिभंते कैसे लिखेंगे, ऐसा कभी नहीं हो सकता.इसलिये इन महाराजके नामसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते करनेका ठहराने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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