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सप्तदशः १७] भाषाटीकासमेतम् । (१७३) जिसमें धनहानिभी रहे,अंग माडे होजावें, दुष्टजनके कृत्यसे संताप युक्त रहे, सर्वदा मानहानि होवै ॥ ११॥
ग्रंथकर्तृप्रशंसा। आसीच्छ्रीकरुणाकरो बुधवरो वेदाङ्गवेद्याकरस्तत्सूनुः क्षितिपालवंदितपदः श्रीशंभुनाथः कृती॥ विज्ञवातकृतादरो गणितविज्योतिर्विदां प्रीतये चक्रे भावकुतुहलं लघुतर श्रीजीवनाथः सुधीः॥१२॥ इति श्रीमन्मैथिलशंभुनाथगणकात्मजजीवनाथविरचिते भावकुतूहले
ग्रहाणां गर्वितादिदशाफलाऽध्यायः ॥ १७ ॥ पहिले मैथिलदेशमें श्रीकरुणाकरनाम पंडितश्रेष्ठ वेदवेदांगके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ यद्रा खान (उक्तविद्याओंको प्रगट करनेवाली भूमि) में भया,इनका पुत्र पण्डित शम्भुनाथ भया,जिसके चरणोंकी वंदना राजालोग करतेथे तथा विद्वानोंके समूहते आदरणीय एवं गणितविद्या जाननेवाला रहा इनका पुत्र श्रीजीवनाथ नामा पंडित ज्योतिर्विजनोंके प्रसन्नताके लिये छोटासा ग्रंथ भावकुतहल (जिसमें पाठ स्वल्प, प्रयोजन बहुत है) बनाया ॥१२॥ इति भावकुतूहके माहीधरीभाषाटीकायां ग्रहाणां गर्वितदिदशाफलऽध्यायः१७ नवाब्धिनवभूमिविक्रमदिवामणेर्वत्सरे महीधरधरासुरष्ठिहरिसंज्ञके पत्तने ॥ विवर्णमिह भाषया फलितभावकौतूहलेऽकरोच्छिशुमनोमुदे चपलतां क्षमध्वं बुधाः॥३॥जातकेषु बृहदाख्यजातकस्ताजिकेषु खलु नीलकंठिका॥हौरके फलविधौ शिरोमणी तो मया प्रकटितौ विवार्णितौ ॥२॥ लक्षणैरसमस्तीपि
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