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________________ ( १३८ ) भावकुतूहलम् - [ मारकादियोगा: पापसंज्ञक एवं क्रूर फल देनेवाले होते हैं ऐसा पंडितोंने कहा है । तथा कद्र १।४ । ७ । १० स्थानोंके स्वामी शुभग्रह हों तो शुभ फल नहीं देते हैं पापग्रह हों तो अतिशुभ फलदेते हैं यह विचार जन्ममें मुख्य है ॥ २ ॥ यद्यद्भावतो राहुः केतुश्च जनने नृणाम् ॥ यद्यद्भावेशसंयुक्तस्तत्फलं प्रदिशेदलम् ॥ ३ ॥ राहु तथा केतुभी मनुष्यों के जन्ममें जिन जिन भावोंमें हों और जिन जिन भावोंके स्वामियोंसे युक्त हों उन उन भावसंबंधी फलोंको निश्चय देते हैं ॥ ३ ॥ मन्दश्चेत्पापसंयुक्तो मारक ग्रहयोगतः ॥ तिरस्कृत्य ग्रहान्सर्वान्निहता पापकृद्यदा ॥ ४ ॥ यदि पापकर्ता शनि पापयुक्त होकर मारक (सप्तमेश द्वितीयेश) से युक्त उपलक्षणसे दृष्ट भी हो तो समस्त ग्रहों के फलोंको हटायके मारने वाला स्वयं होजाता है ॥ ४ ॥ अल्पमध्यमपूर्णायुः प्रमाणमिह योगजम् ॥ विज्ञाय प्रथमं पुंसां ततो मारकचिन्तना ॥ ५ ॥ प्रथम अल्प, मध्यम, पूर्ण आयुका विचार वक्ष्यमाण योगों से करके तब मारकका विचार करना (जैसे योगसे पूर्णायु है और मारक दशा अल्प वा मध्यमायुके समयमें हो तो अरिष्टमात्र होगा मृत्यु नहीं होगी ऐसेही मारकयोग अल्पायु समय में हो तथा मारक दशापूर्णायु समय में हों तो ऐसेही जानना । जब मारक दशा और योगायुभी तुल्य समयपर हो तब मृत्यु होती है ॥ ५ ॥ अल्पायुर्भावादिविचारः । चेदङ्गपो यदि रवेररिरेव हीनं पूर्ण सुहृद्यदि समः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034482
Book TitleBhavkutuhalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJivnath Shambhunath Maithil
PublisherGangavishnu Shreekrushnadas
Publication Year1931
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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