SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भवविटपिसमूलोन्मूलने मत्तदन्ती जडिमतिमिरनाशे पमिनी प्राणनाथः । नयनमपरमेतद् विश्व तत्त्व प्रकाशे करणहरिणबन्धे वागुरा ज्ञानमेव ॥ १॥ अथोत्-संसार रूपी वृक्ष को समूल उखाडने में मदोन्मत्त हाथी के समान, मूर्खता रूपी अन्धकार के नाश करने में सूर्य तुल्य, समस्त जगत् के तत्वों के प्रकाशित करने में तीसरे नेत्र के समान और इन्द्रिय रूपी हरिणों के वश करने में जाल ( पाश) के समान ज्ञान है । सम्यक् ज्ञान रूप प्रथम रत्न के विवेचन करने के बाद अब दूसरा सम्यक् दर्शन आता है । इस रत्न के विना किसी भी प्राणी का कल्याण नहीं हो सकता। इसी के बल से और इसी के प्रसाद से अनन्त प्राणी शिवमंदिर ( मोक्ष ) में विराजमान हुए हैं, विराजमान होते हैं, और विराजमान होंगे। अङ्करहित शून्य जिस प्रकार व्यर्थ माना जाता है अर्थात् वह संख्या नहीं बता सकता, वैसे ही तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यक दर्शन विना धर्मध्यानदान, शील, तप और भावादि व्यर्थ हैं । अर्थात के सब मोक्ष के हेतुभूत नहीं होते । श्रद्धा के बिना कोई भी कार्य ठीक नहीं हो सकता है, तो फिर मोक्ष प्राप्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034476
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy