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________________ ( २५ ) वस्तु तव अर्थात् जीव, अजोव, पुण्य, पाप, आंश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष- आदि पदार्थों का संक्षेप से अथवा विस्तार पूर्वक जानना, उस को विद्वान लोग सम्यग् ज्ञान कहते हैं । कतिपय प्राणियों का क्षयोपशम भाव से संक्षेप ज्ञान होता है । और कितनेक को कर्मक्षय होने से विस्तार पूर्वक ज्ञान होता है । विस्तार ज्ञान से युक्त मात्र केवली भगवान ही हो सकते हैं । संक्षेप ज्ञानवाले - अपन सब छनस्थ हैं । इस लिये केवली के बचन पर विश्वास रख कर जीवादि पदार्थों पर रुचिमान होना यह सम्यक् दर्शन नामक दूसरा रत्न है । भोजनादि चाहे कितने ही सुन्दर होवे, परन्तु रुचि न होने के कारण से स्वादिष्ट ( जायकेदार ) नहीं लगते हैं। वैसे ही पदार्थ ( तत्त्व ) इतर मत की अपेक्षा से सुव्यवस्थित और परस्पर बाधारहित होवे, परन्तु रुचि के अभाव में वे ठीक नहीं लगते हैं। इस कारण से श्रद्धायुक्त ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहा है । इस सम्यक् ज्ञान की महिमा का वर्णन शाखों में अनेक स्थलों पर किया है । उस में से नमूने के तरीके पर एक श्लोक यहां पर प्रदर्शित किया जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034476
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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