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________________ [ ४९४ ] महावीर स्वामी के भी कल्याणक तो पांचही कहने इसतरहका लेख विवेकशून्य मुग्धजीवों को दिखाकर श्रीकल्प सूत्र के सूड पाठसे श्रीवीरप्रभुके पांच कल्याणक स्थापन करके छठे कल्याएकका निषेध किया सोतो निष्केबल मायाचारीको धूर्ततासे अथवा विद्वत्ताको अजीर्णतासे विवेकी तत्वज्ञ विद्वानों के सामने अपनीहासी करनेका विनय विजयजीने वृथाही परिश्रम किया है क्योंकि राज्याभिषेकके पाठकी तरहसे श्रीवीर प्रमुके गर्भापहाररूप दूसराच्यवन कल्याणककी गिनतीपूर्वक शासनपतिके छ कल्याणक कदापि निषेध नहीं हो सकते हैं जिसका खुलासा तो उपर मेंही लिखा गया है परंतु यहां तो विनय विजयजीकी विद्वत्ताकी उल्लंठाईको प्रगट करके पाठकगणको दिखाता हूं कि देखो 'पंचहृत्युत्तरे साइणा परिनिवु डे' इस शब्द से पांचका अर्थ विनय विजयजीने किया सो कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि 'पंचइत्युत्तरे साइणा परिनिवडे' इस शब्द से पांचकाही अर्थ किया जावे तो यह शब्दही शास्त्रकारका लिखना वृथा होजावे इसलिये जो विनय विजयजी तथा उन्होंके पक्षको ग्रहण करनेवाले वर्तमानिक तपगच्छके विद्वान् लोग जो शास्त्रकार महाराजके लिखनेको वृथा ठहरा करके अपनी इच्छानुसार अर्थ बनालेवे तबतो ढ ढक तथा तेरहापंथियों की तरह प्रत्यक्ष उठाई सिद्ध होने में कोई बाकी नही है क्योंकि ढूंढिये तथा तेरहा पंथी लोग गणधर महाराज कृत मूलसत्रों को मानने का पुकार पुकारके लोगों के आगे कहते हैं परंतु जगह जगह पर गणघर महाराज के विरुद्धार्थमें अपनी मति कल्पनासे प्रत्यक्ष असंगत अर्थकरके बालजीवोंको अपने कदग्राहकी भ्रमजालमै Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ܘ
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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