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________________ [ ७८३ ] धर्म सागरजी व उनके अनुयायियों को गच्छ कदाग्रही अशानियों के सिवाय और क्या कहा जाबे सो इस बातको निष्पक्षपाती आत्मार्थी विवेकी बिनाशाभिलाषी पाठक गण स्वयं बिचार सकते हैं तथा दूसरा और भी सुनो वर्तमानमें गच्छ वासी यति तथा श्री पूज्प लोगोंमें अपने २ गच्छके मंदिरोंमें मात्र पूजाका पढ़ाना सतरह भेदी पूजन तथा शांतिक पूजन प्रतिष्ठा उजमणादि कर्तव्य जो जो यति लोग कराते हैं वहां दूसरे गच्छवाले यतिको स्नान पूजा प्रतिष्ठादि क्रिया कभी नहीं करने देते जिस पर भी दूसरे गच्छ वालायति करने जावे तो वे लोग बोलने लगते हैं कि ऐसा कभी हुआ नही होने भी नहीं देवेंगे यह बात भी प्रत्यक्ष देखने में आती है इससे दूसरा गच्छ वालेका स्नात्र पढ़ानादि क्रिया करवाना शास्त्र विरुद्ध नहीं हो सकती परन्तु निषेध करने वालोंका गच्छ कशग्रह अन्ध परंपरा ही समझनी चाहिये और कितने ही संवेगी नाम घराने वाडे साधु लोग तथा उन्होंके दृष्टिरागी भावक लोग भी दूसरे गच्छ वाले साधू साध्वियों को अपने गच्छके उपाश्रय व धर्मशालामें उतरने नहीं देते एसे ही अन्यमत वाले मिथ्यात्वी लोगोंनें भी देखने में आता है कि अपने मतके मठ देवलमें वा अपने भक्तोंके घरमें पूजन व अनुष्ठानादि कार्य अपने कुटुम्बके आदमीके सिवाय दूसरे आदमीको नहीं करने देते जिस पर भी कोई करने जावे तो उस पर अपने से बन सके तब तक मारपीट बड़ाई दङ्गा शिर फोड़ना वगैरह करें परन्तु अपने विरुद्ध दूसरेको नहीं करने देते इसी तरह से वे चैत्यवासी भी अपने सिवाय दूसरे गच्छ वालेको नहीं करने देते थे उससे उन चैत्यः बासोनी जवनोने भी श्रीजिन वल्लभ सूरिजी को दूसरे गच्छवाडे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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