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________________ [ ७७७] और चीतोड़ नगर में श्रीजिन वल्लम सूरिजी महाराजने चातुर्मास किया उस समय चीतोड़नगर में चैत्यवासियोंने अपने अपने गच्छ परंपरा रूप वाडेके दृष्टिसंगका अंघ परं परामें भोले जीवोंको फंसा लिये थे तथा मंदिरों (चैत्यों ) के मालिक बन बैठे थे और चैत्यादिमें रहते हुए चैत्यका पैदास पूजारी सेवक गोठीकी तरह खाते थे और अविधिसे सावद्यानुष्टान पूर्वक संयम मार्गको छोड़ कर भ्रष्टाचार में पड़े थे इस लिये चीतोड़ में उस समय जितने मंदिर थे वह सब पक्षपाती कदाग्रही चैत्य वासियोंके हाथमें होनेसे अविधि चैत्य थे परन्तु पक्षपात रहित विधि मार्गका एक भी मन्दिर वहां नहीं था इस लिये महाराजने श्रावकको कहा किअन्यच्च तथा विधं किमपि विधि चैत्य नास्ति ततो अत्रैव चैत्यवोस चैत्येगत्वा देवावंद्यतेतदाशोभनं भवति " अर्थात् इस नगर में चैत्यवासियोंके अविधि चैत्योंके सिवाय विधि चैत्य कोई नहीं' है इसलिये चैत्यवासी चैत्यमें जाकर देव वंदन करना अच्छा है तब महाराज के साथ में अन्य भी बहुत श्रावक लोग पवित्र वस्त्रादि धारण करके मन्दिर में लेजाने योग्य पूजा की सामग्री लेकरके देव वंदन के लिये चले इस तरहसे महाराज को भावकों के साथ में श्रीवीर प्रभुके गर्भापहार दूसरे च्यवन रूप छठे कल्याणक संबन्धी देव बंदन करनेको किसीके मुख से अपने चैत्यमें आते हुए सुनकर चेत्यवासीनी साध्वीने विचारा कि - " पूर्व केनापिनकृतंअधुना करिस्यतीति न युक्तं पश्चात्संयतो देव गृहद्वारे पतित्वास्थिता द्वार प्राप्तान् प्रभूनव लोयोक्त "6 तया दुष्टचितया मया मृतया यदि प्रविशत तादूगमीतिक ज्ञात्वा निवत्यं स्वस्थानं गताः पूज्या " अर्थात् मेरे मंदिर मैं पहले किसीने ( वीर प्रभुके गर्भापहार कल्याणक संघ १३ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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