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________________ ( १५९ ) अब न्यायाम्मो मिथिनीके लेखकी समीक्षा के अनन्तर प्रकृते धर्मसागरजी के लेखकी भी समीक्षा करना उचित समझ कर करता हूं। जिसमें अब यह ग्रन्थ बहुत बड़ा हो गया, तथा सुखशोधिका के और जैन सिद्धान्त समाचारीके लेखकी समीक्षा में विशेष रूप से वर्त्तमानिक सब सन्देहोंका निवारण हो गया है । इसलिये इनके लेखकी समीक्षामें तो श्रीतपगच्छकी उत्तमताको उठाकर उत्सूत्र प्ररूपणाका हर वर्षे प्रचार करनेके लिये जो पर्यु - षणाजीके व्याख्यान में प्रथमही षटकल्याणकों का खंडन करके मिश्रवकी वृद्धि करते हुए श्रीजिनाशाका नाश करके भद्रजीवों को कुयुक्तियोंके विकल्पों में फंसाकर उन्होंके सम्यक्त्वरूपी शुद्ध श्रद्धाके धनको उम्मार्ग के उपदेशरूपी तस्कर वृत्तिसे हरण करनेवाले गाढ अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका अज्ञानतासे धर्मसागरजीने जो जो शास्त्रविरुद्ध बातें लिखी हैं। जिसका नमूना मात्र दिखाता हुआ संक्षिप्तसे थोड़ासी दिग्दर्शन मात्र समीक्षा करता हूं। उससे भी तत्वज्ञजन तो सब पाखण्डकी मायाजालके परदोंके भेदको अच्छी तरह से समझ लेंगे, सो प्रथम तो श्रीकल्पसूत्रकी किरणावली नामा अपनी बनाई टीका श्रीवीर प्रभुका चरित्र कथन करने सम्बन्धी धर्मसागरजी ने लिखा है कि [ साम्प्रतं तीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नोपकारित्वादादावेव श्रीभद्रबाहुस्वामिपादास्तद्भव व्यतिकरावाप्त पंच कल्याणकनिबंध बंधुरं श्रीवीर चरित्र सूत्रयन्त उद्देश निर्देश सूचक प्रायः जघन्य मध्यम वाचनात्मकं प्रथमं सूत्रमादिशन्ति "तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे पञ्चहत्युत्तरेहोत्या- तंजहाहत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्कतो ॥ १ ॥ हत्थुत्तराहिं गम्मा ओ गम्भं साहरिये ॥२॥ इत्युत्तरा हिं जाए ॥ ३ ॥ इत्युत्तरा हिं मुडेभविता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ४ ॥ इत्थुत्तरा हिं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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