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________________ ( ७५६ ) कको। तथा-अधिक मासकी गिनतीसे दूसरे प्रावण या प्रथम भाद्रपद, पर्युषणपर्वाराधनको। तथा सामायिकाधिकारे प्रथम करेमि-भन्ते पीछे इरियावहीको। और श्रीजिनेश्वरमूरिजीको खरतर विरुद मिला था, उससे श्रीनवाङ्गीत्ति कारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतरगच्छ में हुए उसको। और वहगच्छके नहीं किन्तु चैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चंद्रसूरिजीसे तपगच्छ हुआ। इत्यादि इन सत्य बातोंको निषेध करने के लिये जो जो कुयुक्तिये कोई अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी गुरुकमै भद्रीकजीवोंको अपने कदाग्रहमें फंसानेके वास्ते उत्पन्न करें, तो वे सब जिनाजा विरुद्ध होनेसे, सर्वथा व्यर्थ समझकर उनको कदापि ग्रहण नहीं करना। और इस ग्रन्थमें उपरोक्त बातें शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक दिखाने आई है। उसको ग्रहण करके अपनी आत्म कल्याणके कार्य, उद्यम करना। तथा अन्य भव्य जीवोंको भी सत्य ग्रहण करवाके सत्यकाही उपदेश द्वारा विशेष प्रकाश करना। और अपने मनुष्य जन्ममें जैनधर्मकी प्राप्तिको सफल करना, परन्तु जमालि आदि निन्हवोंकी तरह संसार वृद्धि और दुर्लभ बोषिके निमित्त भूत उत्सूत्री होकर देशविरती और सर्वविरतीकी हानी करके सम्यक्त्वको उन्मूलन करना उचित नहीं है। इति-न्यायाम्भोनिधिपदधारकस्य षट्कल्याणकादि प्रतिषेध विषयी लेखस्य श्रीमत् परमपूज्य गुरुवर्य श्रीमुमतिसागर महाराजस्य लघुशिष्य मुनिमणीसागरनेयं समीक्षा सम्पूर्णा कृता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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