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________________ [ ७४३ ] संयमी सबके एकसमान उपगारी होनेसेही तो इन महाराजने सर्व मान्य चान्द्रकुल लिखा परन्तु खरतर न लिखा सो तो इन महापुरुषोंने बहुतही अच्छा किया जो गच्छके आग्रहके निमित्त कारणको जड़कोही नहीं लिखा अन्यथा जैसे वर्तमानकालने कितनेही विवेक शून्य गच्छकदाग्रही जैनी नाम घरानेवाले, किसी गच्छवालेने अपने गच्छके नामसे कोई अच्छा भी पुस्तक बनाया होवे तो भी उसको नहीं मानते हैं। सो मानना तो दूर रहा हाथ में लेकर वांचने में भी सङ्कोच करते हैं, और कितनेही आदमी उस पुस्तककी बातों सम्बन्धी सत्यासत्यका निर्णय किये बिना ही बोलने लगते हैं कि इसमें क्या है यह तो अमुक गच्छ वालेने बनाया है सो अपनी बातें लिखी होगी इसलिये इसको नहीं बांचना चाहिये सो ऐसे दृष्टान्त वर्तमानमें बहुत देखने में माते हैं सो ऐसा न होनेके लियेही तथा भाष्यचूर्णिकारोंकी और हरिभद्रमूरिजी वगैरह महाराजोंकी तरह इन महाराजने भी स्वभाविकसे खरतर विरुद न लिखा परन्तु आप खरतर विरुदमें ही थे सो स्वयं अच्छी तरहसे जानते थे। और दूसरा यह भी कारण है कि श्रीअभयदेवसूरिजी श्री. जिनवल्लभमूरिजी वगैरह उपरोक्त महाराज अपने अपने बनाये शास्त्रों में अपना खरतरगच्छ को जगह जगह पर लिखते जावे और उस समयके चैत्यवासियों की तरह गच्छरूप वाईके आग्रहका बन्धनको दृढ़ होनेका कारण करें, ऐसा उन महाराजोंसे कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि देखो उस समय चैत्यवासी लोग अपने अपने भक्तोंको अपने दृष्टिरागमें फसानेके लिये अपने अपने गच्छकी परम्पराका नाम लेकर विवेक शून्य भोले जीवोंको अपनी मायाजालमें फसाते थे और आराधक, विरा. धक, सम्बन्धी शुद्ध वर्तावके विचारोंको भूलाकर अपनी स्वार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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