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________________ [ ६७ ] सो ऐसा तो बहुत प्रशस्तियों के पाठों में देखने में आता है, देखिये ? श्री जगच्चन्द्रसूरिजी महाराजने तपस्पा करी उससे इन्होंको राणाकी तरफ से 'तपा' का विरुद मिला ऐसा वर्त्त मानिक सब तपगच्छवाले मानते हैं, परन्तु इन्ही महाराजके शिष्य श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराजने श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी वृत्तिके अन्तको प्रशस्तिके पाठ में तथा श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजीनें श्रीबृहत्कल्प शृत्तिकी प्रशस्तिके पाठ में, इत्यादि अनेक पाठोंमें श्री जगच्चन्द्रसूरिजीका नाम मात्र ही देखने में आता है परन्तु उन्होंने आंबीलकी तपस्या करी उससे राणानें 'तपा' विरुद दिया, उस दिनसे तपगच्छ प्रसिद्ध हुआ, ऐसा नहीं लिखा और 'तपस्वी' या 'तपा विरुद' धारक तपगच्छकी सन्तती चलाने वाले ऐसा भी किसी तरहका विशेषण नहीं लिखा तो क्या यह बात नहीं मानी जाती, सो तो नहीं ? किन्तु विशेषरूप से प्रगटपने माननेमें आती है, इसलिये कथानक रूपकी बातको प्रशस्तिकार खुलासा पूर्वक लिखे, या न लिखे यह तो ग्रन्थकारको इच्छाकी बात है, परन्तु प्रशस्तिमें कथानककी बातको न लिखने पर प्रसिद्ध प्रचलित बातको नहीं मानना या निषेध करनेका व्यर्थ हठवादका कदाग्रह करना सो न्याय विरुद्ध होनेसे आत्मार्थियोंकों सर्वथा त्यागने योग्य है, तिसपर भी कोई अभिनिवेशिक कदाग्रही हठवाद करें, तो अब यहां दुर्लभराजाकी सभा में चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थं होने सम्बन्धी नीचे में प्राचीन पाठ दिखाने में आवे सो देखो । १० दशवा - और भी ऊपरकी बात सम्बन्धी सुप्रसिद्ध सवा लक्ष ब्राह्मण क्षत्री महेश्वरी वगैरह के कुटुम्ब्रोंकों प्रतिबोध करके जैनी श्रावक बनाने वाले तथा चौसठ योगनी और बावन वीर वगैरह अनेक देवी देवताओंको अपने वश में करके जैनधर्मकी महान् उन्नति करने वाले बड़ेही शासन प्रभावक, जङ्गम युग ८८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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